28 August 2017

किसी शाम से मैं सुबह जा मिलूँगी

किसी शाम से मैं 
सुबह जा मिलूँगी 
हूँ धूप  चाँदनी से
किसी दिन मिलूँगी 
मिलूँगी .....  किसी दिन 
मैं  ख़ुद से मिलूँगी ...

बैठ कर रोशनी 
थक गई है यूँ  भी दिनभर  .... 
छांव भेजी  है पहाड़ों ने 
चीनारो में  यूँ भर भर  ...... 
हूँ हवा ख़ुशबुओं में मैं 
घुल घुल के  बहूँगी   ...... 
मिलूँगी .....  किसी दिन  मैं  ख़ुद से मिलूँगी ...


रास्ते चल रहे है 
कभी रुकते ही नहीं है .... 
फ़ासले मंज़िलो से 
कभी   घटते  ही नहीं है  .... 
हमसफ़र हूँ मैं  हमसफ़र 
बनके तुझसे  आ मिलूँगी  .... 


मिलूँगी .....  किसी दिन  मैं  ख़ुद से मिलूँगी ...


रेत की हाथो  से 
जाने पटती क्यूँ नहीं है .....
वक़्त सी, रेत भी 
कभी टिकती ही नहीं है .....
लकीरों में हाथो की 
कभी के मैं मिलूँगी  .....
मिलूँगी .....  किसी दिन  मैं  ख़ुद से मिलूँगी ...







No comments: