2 September 2017

Ganesh ji ka vivah




एक समय की बात है तब श्री गणेश श्री गंगा जी के पावन तट पर तपस्या में लीन  थे।  उनके नेत्र आधे खुले हुए थे और उनका ध्यान श्री हरि के चरणों में लगा हुआ था।  श्री गणेश का ध्यान सदैव ही श्री हरि  के चरण कमलों  में  लगा रहता।
इस समय वे रत्न जड़ित एक सिंहासन पर विराजमान थे।  समस्त अंग चन्दन के लेप से सुगन्धित हो रहे  था।  उनके गले में पारिजात के फूलो की माला एवं  अनेकानेक स्वर्ण रत्न जड़ित हार सुशोभित थे।  कोमल रेशम का पीताम्बर उनकी कमर में लिपटा  हुआ था। कितने ही रत्न जड़ित विविध आभूषण   उनकी भुजाओ की शोभा बढ़ा रहे थे।  उनके मस्तिष्क पर करोड़ो सूर्य सा देदीप्यमान मुकुट और कानो में कुण्डल चमक रहे थे।  उनकी  सुन्दर सूँड  तथा श्वेत दन्त भी मुख की शोभा बढ़ा रहे थे।  श्री गणेश योग निद्रा में अत्यंत देदीप्यमान और प्रकाशवान लग रहे थे।
इसी समय पर  श्री धर्मपुत्र की सुकुमारी सुकन्या तुलसी देवी  जो श्री हरि  का स्मरण करते तीर्थाटन पर निकली थी।  तुलसी देवी भ्रमण करते हुए श्री गंगा के तट  पर जहाँ श्री गणेश जी विराजमान थे , वहां का आना हुआ।
तुलसी श्री गणेश के इस रूप को देख कर मोहित सी हो गई।  वे सोचने लगी - ' कितना अलौकिक और अद्धभुत रूप है पार्वतीनंदन का ? तुलसी जी के मन में विचार आया कि  गिरिजानंदन मेरे अनुरूप उपयुक्त वर है।  उनके मन में विचार आया कि एकदन्त जी से संवाद करके उनके भी विचार जानना चाहिए।  मुमकिन है वे भी इसी प्रयोजन से तपस्या में लीन  है।
तद्पश्च्यात तुलसी जी  ने गजेंद्र के समीप जाकर निवेदन किया और भावपूर्ण वंदना की। तुलसी जी को देख गणेश्वर कुछ अचकचा से गए।  इससे पहले उन्होंने देवी तुलसी को देखा न था। अतः वे सोच में पड़  गए -' ये देवी कौन है और किस प्रयोजन से आई है ?'
तदुपरांत महादेव पुत्र श्री गणेश बोले  '- ' हे देवी आप कौन है ? आप को पहले कभी नहीं देखा और आप किस प्रयोजन से आई है तथा मेरी तपस्या में विघ्न डालने का हेतु क्या है, कृपया विस्तार में समझाए। '
तुलसी जी बोली - ' हे गणेश्वर ! मैं धर्मपुत्र की कन्या तुलसी हूँ।  आपको यहाँ तपस्या करते देखकर उपस्थित हो गई। '
यह सुनकर शिवपुत्र बोले - 'देवी आपको इस तरह तपस्या में विघ्न नहीं डालना चाहिए।  सर्वथा अकल्याण ही होता है।  श्री भगवान आपका मंगल करे।  आप कृपया यहाँ से चली जाय । '
इसपर धर्मपुत्री तुलसी ने अपनी व्यथा कही - ' हे पार्वतीपुत्र ! मैं अपने मन अनुकूल वर की खोज में तीर्थाटन को निकली हूँ।  अनेक वर देखे किन्तु मुझे आप पसंद  आये एतेव  मुझे अपनी भार्या के रूप में स्वीकार करके मुझसे विवाह कर लीजिये। '
गणाधीश बोले - ' हे माता ! विवाह कर लेना जितना सरल है उसका निर्वाह करना उतना ही कठिन है।  इसीलिए विवाह तो दुख का ही कारण होता है।  इसमें सुख की प्राप्ति कभी नहीं होती।  साथ ही ज्ञान की प्राप्ति में बाधक होता है।  अतएव हे माता ! आप मेरी ओर  से चित्त हटा लें।  मुमकिन है आपको खोजने पर मुझसे अच्छे अनेक वर मिल जायेँगे। '

श्री तुलसी बोली - ' हे एकदन्त ! मैं तो आप ही को मनोनुकूल वर के रूप में देखती ही।  इसलिए आप मेरी याचना को ठुकराकर निराश ने करे।  कृपया मेरी प्रार्थना स्वीकार कर ले। '
यह सुनकर एकदन्त बोले -' विवाह तो मुझे करना ही नहीं है सो मैं आपका प्रस्ताव को स्वीकार कैसे कर सकता हूँ।  आप मुझे क्षमा करे तथा  अपने  लिए  कोई और वर खोज ले '
तुलसी माता को यह बात नागवार गुज़री लेकिन बहुत अनुनय - विनय पर श्री गणेश टस  से मस  ने हुए , इस पर माता तुलसी को क्रोध आ गया और उन्होंने श्री गणेश जी को श्राप दे डाला।
तुलसी जी बोली  - ' हे उमानन्दन ! मैं कहती हूँ कि आपका विवाह तो अवश्य होगा।  और मेरा ये वचन मिथ्या न होगा। '
तुलसी जी द्वारा दिए गए शाप को सुनकर श्री गणेश भी शाप दिए बिना न रह सके , उन्होंने तुरंत कहा - ' 'हे देवी ! आपने व्यर्थ ही श्राप दे डाला है , इसलिए मैं भी कहता हूँ की आपको जो पति प्राप्त होगा वह असुर होगा।  इसके पश्चात महापुरुष के श्राप से आपको वृक्ष होना होगा। '

श्राप सुनकर तुलसी जी भयभीत हो गई।  उन्होंने गणेश्वर की और कृपा की याचना की।  वे बोली  - ' हे देव ! मुझ पर कृपा कीजिये।  मेरे इस अपराध को क्षमा कीजिये।  हे देवो के देव - आप तो दयालु है , विघ्नहर्ता है।  आपने ही  मुझे श्राप दिया है उसका निवारण भी आप ही कर सकते है।  हे दुःखहर्ता ! मेरा दुखो का नाश कीजिये। '

गणेश जी सरल और सहज स्वाभाव के होने के साथ साथ दयालु ह्रदय के भी है , वे बोले -' हे देवी ! आप समस्त सौरभवंत पुष्पों की सारभूता बनेंगी। कलांश से भगवान् श्रीनारायण की प्रिया बनने का सौभाग्य प्राप्त होगा।  यद्यपि समस्त देवगन आपसे प्रसन्न रहेंगे, तथापि भगवन श्री हरि  की आपके प्रति विशेष प्रीति रहेगी।  मनुष्यलोक में आपके ही माध्यम से श्री हरि  की भक्ति करने पर मोक्ष की प्राप्ति होगी।  किन्तु आप मेरे द्वारा सैदेव ही त्याज्य रहेंगी। '

तदुपरांत , जैसा की ज्ञात है  कालांतर में वही तुलसी वृंदा हुई और उनका  विवाह दानव राज शंखचूड़ से हुआ।   शंखचूड़ पूर्व जनम में भगवन श्री कृष्ण के पार्षद सुदामा थे जो श्री राधा के श्राप से असुर योनि को प्राप्त हुए थे। शखचूड़ भार्या अर्थात देवी तुलसी भवन के कलांश  से वृक्षभाव को प्राप्त होती हुई श्री हरि  की परम प्रिय हुई।http://www.hamarimahak.com/2017/08/Ganesh-ka-vivah.html



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