कह दो न कह दो न
यूँ क़तरे में दरिया समा ले जो कोई
मुनासिब नहीं ... कह दो न
यूँ ख़्वाबों की दुनिया में आए जो कोई
मुनासिब नहीं ....कह दो न
लफ़्ज़ों को आँखो से तोलतीं है
ये ख़ामोशियाँ तो सब बोलती है
ये क्या बोलती है
ये क्यूँ बोलतीं है
यूँ बोलें बिना सब सुनायें जो कोई
मुनासिब नहीं ... कह दो न
खनकतीं हँसी भी कुछ बोलती है
ये पोशिदा से राज भी खोलतीं है
ये क्या बोलती है
ये क्यूँ बोलती है
यूँ राज ऐ दिल खोले जो कोई
मुनासिब नहीं ... कह दो न
तेरी ख़ुशबू हवा में इतर घोलती है
ये हस्ती नशे में क्यूँ डोलती है
ये क्या घोलती है
ये क्यूँ घोलती है
ख़यालों में ख़ुशबू घोले जो कोई
मुनासिब नहीं ... कह दो न
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