अचानक हमारे फोन स्क्रीन पर मैसेज पॉपअप हुआ - "कैसी है आप ? कुछ लिखा इन दिनों ?"
तुषार पंडित साहब का मैसेज था - बड़े भाई तुल्य मानते थे हम । हाल ही में परिचय हुआ था इनसे ।
हम बोले - " आजकल ज़िन्दगी में एक हड़ताल सी है। कल ही कुछ उम्दा ख्याल शहीद हो गए- दिमाग की घाटी में। और ये जो दिल है कुछ कश्मीर सा हुआ जाता है - और दिमाग की हालात कुछ हमारी चीफ मिनिस्टर साहिब महबूबा मुफ़्ती सी है - परिस्तिथि जिनके काबू से बहार जा चुकी है "
-"जेहन में रह रह कर कुछ फिदाईन से ख्याल आ रहे है जो की ज़िन्दगी को नेस्तनाबूद किया चाहते हो। "
"और ये जिस्म हमारा मानो हिंदुस्तान हो गया है - ये हालात, ये खयालो के आये दिन के फिदायीन हमले - ये हिंदुस्तान कब तक झेले। ये शरीर अब जर्र जर्र हुआ जाता है। "
"सच कहे भाई साहब - बस प्रेजिडेंट रूल लगवा दीजिये मेरे दिल दिमाग और रूह में !! "
तुषार भाई बोले - "कमाल है आप! कश्मीर के, हिंदुस्तान के इन हालातो से कितनी सहजता से कनेक्ट कर लिया एक लेखक मन को - एक नारी मन को। "
- "मेरी मानिये इसी विषय पर कहानी कह दीजिये आप "
हम गंभीर हो गए और हमने कहा - "ये विषय बहुत नाज़ुक है , देश से जुड़ा मसला है - इस पर कहानी कहना उचित न होगा मगर अपनी कहानी - संध्या से लेखिका तक कुछ बाते आज हिम्मत कर कह देते है। "
तो बात ऐसी है कलम घिसने की आदत तो बचपन से रही है । थोड़ा-मोड़ा हिंदी और अंग्रेजी में लिख कर अक्सर सहेलियों मित्रो के बीच अपना पांडित्य झाड़ा करते थे।
खैर, वक़्त गुज़रा तो ये लिखने का रोग उम्र के साथ बढ़ता सा चला गया - बहुत कुछ लिखने की कोशिश कर डाली। हमारी हिम्मत की दाद दीजिये, जब हमने अपनी कविता छपने के लिए एक नामी गिरामी पत्रिका में भेजने का पराक्रम किया ! अरे - रुकिए, ....एक नहीं, दो थी ! लेखन का भूत सर चढ़ के बोल रहा था । संपादकों ने शायद हमारी कृति को टेबल पर गिरी चाय पोछने में इस्तेमाल कर लिए था या मूंगफली बेचने वाले को दे आये थे राम ही जाने उनकी क्या गति हुई होगी !
मगर अफ़सोस , एक खेद वाला जवाब भी नहीं आया !!
मगर अफ़सोस , एक खेद वाला जवाब भी नहीं आया !!
अब इसका असर बिलकुल वैसा था जैसे किसी ओझा, तांत्रिक ने तंत्र मन्त्र , झाड़ फूंक कर हमारे ऊपर मँडराता हुआ लेखन का भूत निकाल दिया हो। निरीह सा, बेचारा वो भूत कहीं पतली गली में निकल लिया । कुछ सालो तक अपने इर्द गिर्द उसका साया भी न नज़र आया !
मगर लेखक की रूह थी भीतर - ऐसे ही थोड़ी छोड़ देती हमको - कुछ सालो बाद फिर सर उठाया।
फिर कलम चली - लोगो ने पढ़ा - आप पास के ही लोग थे! वही - पडोसी , दोस्त रिश्तेदार वगैरह ! समझदार निकले सभी - एक-आध रचना पढ़ी या सुनी होगी , और नौ दो ग्यारह हो लिए हो लिए! आलम ये हो गया कि गली में हमें देखते ही वो सभी दाए बाए हो लेते कि कहीं एक कहानी या कविता न सुननी पढ़ जाए ! कितने दुःख दायीं दिन थे वो - लेखन की ऐसी अवमानना कभी न हुई होगी!!!!
मगर हम कहाँ कम थे ! निरे ढीठ ठहरे ! भई, कोई पढ़े या नहीं, सुने या नहीं -हमने तय किया कि हम तो लिखेंगे! तो ये भूत को रहना ही था ताउम्र, रहा!!
नतीजा ??? बस जब तब डायरिया भरते रहे.. कई मर्तबा भाइयों और बहनो ने भी कष्ट सहित हमारी कविताएं झेली है ,छोटे थे न उम्र में इसलिए !! कोई भी भाई बहन हाथ लगता तो दो चार कविता सुनकर अपना कोई पुराना हिसाब तय कर लेते थे हम।
नतीजा ??? बस जब तब डायरिया भरते रहे.. कई मर्तबा भाइयों और बहनो ने भी कष्ट सहित हमारी कविताएं झेली है ,छोटे थे न उम्र में इसलिए !! कोई भी भाई बहन हाथ लगता तो दो चार कविता सुनकर अपना कोई पुराना हिसाब तय कर लेते थे हम।
अच्छे संपादको, कवियों और शायरों की नज़र से कहे तो बस बिना साहित्य के 'स' का ज्ञान लिए गिट्टिर पिटिर लिख खुश होते रहे।
आगे चले तो साल 2009 में ब्लॉगिंग की राह पकड़ी - कविताये पोस्ट की ... जनाब, कौआ तक नहीं फटका ब्लॉग पर - बरसो प्रतीक्षा की मगर वो जो एक्के दुक्के कौए आये थे वो भी फुर्र हो गए ।
साल 2014 में फिर लेखन की दुनिया में पुरजोर ढंग से वापसी की कोशिश की । इस बार एक सहयोगी और था हमारा ढिंढोरा पीटने के लिए - ट्विटर ।
फिर नए सिरे से ब्लॉगिंग शुरू की और कुछ किस्मत कुछ दोस्तों का और कुछ खाली निठ्ठले बैठे publishers और वेबसाइट ( कृपया अन्यथा न ले ) हमारी दो चार कृतिया छाप भी दी। पहचान थी एक पब्लिशर से - उन्हें मैगज़ीन शुरू करनी थी और हमें लेखन । दोनों की चार-एक कृतियों तक यात्रा साथ रही - बस यहीं की हमारे अपने शहर की लोकल हिंदी पत्रिका थी जिसमें 2 कविताये एक यात्रा संस्मरण और एक इंटरव्यू छप गया। उधर किस्मत ने फिर साथ दिया- कुछ मित्रों की मदद से कुछ तीन-एक ebook भी छप गई थी।
अपने आप को लेखिका तो मानने ही लगे थे अब - और भई बड़ी विविधता लिए हुए कलाकार थे हम ।
अब देखिय न - हर जगह तो हाथ मार लिया , मसलन कविता कह ली , टूटी फूटी शायरी की ( जिनके बारे में किसी शायर ने कहा कि आपका एक भी शेर तो मीटर पर है नहीं - ग़ज़ल बहर का ज्ञान है नहीं आपको - आप पहले वो सीखिए ...)
यहाँ बताना जरूरी हो जाता है कि स्कूल से लेकर कॉलेज और फिर जिस जिस ने हमें सिखाने का प्रयत्न किया, उन्होंने घुटने टेक दिए और कह दिया - "हमें माफ़ करे कि आप से उलझ गए हम !" और ऐसा कह वो अपनी राह पकड़ चल दिए । अफ़सोस !! कभी उन्हें इस लेखिका की वेदना, संवेदना नहीं दिखाई दी !
बहरहाल, वस्तुस्तिथि में कोई ख़ास सुधार नहीं हुआ - न सोच में और न लेखन में।
मगर इस दौरान ये साहब कहीं से भूलें भटके हमारे ब्लॉग पर पधार गए । कुछ कहानियां सी लिख रखी थी।
यूँ तो अगर ब्लॉग पे देखे तो तकरीबन कुछ टुटा-फूटा, अच्छा-बुरा, कहानी , कविता, गीत , so called ग़ज़ल इत्यादि की संख्या 600 के ऊपर है। ( अरे ...... अरे ..... किसी से कहियेगा मत plz - बमुश्किल से चार पाठक मिले है - वो भी भाग जायेंगे ! )
मगर उन शायर साहब की टिप्पणी के बाद - मुँह तो नहीं छिपाया अपना मगर हाँ , कृतियाँ सब छिपा कर रख दी ब्लॉग पर।
और ऐसे ही एक दिन ये भाई साहब हमारी एक post- "कैसे कहे कि तुम्हे पाकर" में जाने कैसे एक बड़ी उभरती हुई कलाकारा - कथाकारा का दर्शन कर गए (इस सवाल का जवाब हम आज तक नहीं ढूंढ पाए है - उभरती - बेहतरीन कथाकारा ??? ) ।
बस भाई साहब ने अपना नंबर छोड दिया ब्लॉग ये कहते हुए की आपकी दो रचना प्रकाशन के लिए ले रहा हूँ और आप इस नंबर पर संपर्क करे।
भई हम तो फिर से आसमां में हो लिए ! झटपट फ़ोन उठाया और कर लिया फोन।
सच कहें, तो यहाँ हमारे दिमाग में एक शक का जो कीड़ा जो पलता रहा है - बस कुलबुला उठा ! आदत से लाचार हैं न - अपनी काबिलियत पर हमेशा शक किया है हमने !!!
भाई साहब ने कहा था कि हमारा एक अखबार है जिसमे हमारी ये कृति छपने वाली है। इस दौरान , हमने अपने कुछ खैरखाहो को काम पर लगाया की वाकई ये व्यक्ति ऐसा अखबार मौजूद भी है या नहीं?
पता चला - है तो !! -अखबार भी , इंसान भी !!
हमने मन ही मन सोचा - "अब हम कौन से विश्व कक्षा के लेखक है - चलो, मान लेते है इनकी बात । वैसे भी गुजरात में हिंदी पढ़ने वाले लोग है नहीं और ऊपर से हमें ! - बिलकुल सही सुना आपने - हमें पढ़ने वाले पाठक तो मिलने से रहे !!"
सोचा - "भागते भूत की लंगोट ही सही। " हामी भर दी। अब अगले दो लगातार अंको में हमें बाकायदा वादे के मुताबिक जगह दी गई थी।
हमारे लिए उपलब्धि थी - उत्तर भारत में कुछ लोगो ने पढ़ा तो होगा ही यक़ीनन !
हमने कुछ दिनों के उपरान्त पूछा भी भाई जी से - "आप कहते है की पाठको को हमारी रचना पसंद आई है - तो बताइये - feedback का क्या सिस्टम है आपके यहाँ ? क्या पाठक राय शुमारी कर सकता है ?"
अफ़सोस के साथ जवाब मिला - "नहीं सिस्टर - ऐसा कोई सिस्टम है !
अब ये सोचिये - क्या गुज़री होगी हम पर - हमारे भीतर बरसो से पल रही एक लेखिका पर, जब उसके कानो पर ये पिघला हुआ सीसा पड़ा होगा - एक चीख सी निकल गई - एक आह चीर गई हमारे दिल को भीतर तक।
बस चकनाचूर हो गया दिल हमारा - बस एक हड़ताल सी हो गई ज़िन्दगी में। कुछ मांगे लिए बैठी थी ज़िन्दगी - बड़े बड़े placard लिए हुए - जहाँ पाठको की हाय हाय लिखी गई थी
कुछ डिमांडे ऐसी भी थी की भई अब लेखन का कोई काम न होगा - जब तक अच्छी बस अच्छी खासी ज़िन्दगी पटरी से उतर गई।
बस जैसा की आगे लिखा - ये दिल बगावत पर उतर आया - दिमाग की सुनने से इनकार कर दिया बिलकुल वैसे ही जैसे की दिल कश्मीर , ख्याल फिदायीन और दिमाग मेहबूबा जी और हम गोया हिंदुस्तान!
चक्का जाम सा हो गया फिर तो ज़िन्दगी में - बस हर जगह जैसे कहर बरपा हुआ था - ये वक़्त रोज़ निकलता और हर रोज़ की ये दिनचर्या जैसे लाठी चार्ज करती हम पर।
अब स्त्री है - बंधनो और मर्यादाओ से बंधे है - अपने इस लेखक दिल को मनाने के लिए न शराब का सहारा था न ही धुँए के गुबार का।
बस मुकेश की पंकितयां ही रह रह याद आती रही फिर तो
" जाए तो जाए कहाँ - समझेगा कौन यहाँ दर्द भरे दिल की जुबां "
कोई बताये अब इस दिल की कश्मीरियत का क्या करे ? अब ये जो लेखन का बीड़ा अपने कंधे पे लिए फिर रहे है - हर किसी से मुफ्त में दाद पाने की कोशिश कर रहे है - कोई समझाए हमें - इस बीड़े को बीड़ी बना कर धुँए के छल्ले में कैसे उड़ाया जाए जबकि हम पीते ही नहीं।
और आज जब की हम एक चिंतन की अवस्था में बैठे थे - हमारे सॅटॅलाइट ने कुछ तरंगे इंटरसेप्ट की - शायद माँ सरस्वती के सर्वर से !!
अभी अभी मैसेज स्वर्ग लोक के सर्वर से मिला, लिखा था - "पुत्री , लेखन तुम्हारा कार्यक्षेत्र नहीं है - कृपया शिक्षण में ध्यान दे - विद्यार्थियों को मन लगा कर पढ़ाये- और निरीह, अबोध और लाचार -ऐसे पाठक और श्रोता गणों पर जुल्म न ढाये "
अब बताइये इतने सालो बाद हमें पता चला की हम तो बस युहीं लिख रहे थे - बस युहीं !!
बस चकनाचूर हो गया दिल हमारा - बस एक हड़ताल सी हो गई ज़िन्दगी में। कुछ मांगे लिए बैठी थी ज़िन्दगी - बड़े बड़े placard लिए हुए - जहाँ पाठको की हाय हाय लिखी गई थी
कुछ डिमांडे ऐसी भी थी की भई अब लेखन का कोई काम न होगा - जब तक अच्छी बस अच्छी खासी ज़िन्दगी पटरी से उतर गई।
बस जैसा की आगे लिखा - ये दिल बगावत पर उतर आया - दिमाग की सुनने से इनकार कर दिया बिलकुल वैसे ही जैसे की दिल कश्मीर , ख्याल फिदायीन और दिमाग मेहबूबा जी और हम गोया हिंदुस्तान!
चक्का जाम सा हो गया फिर तो ज़िन्दगी में - बस हर जगह जैसे कहर बरपा हुआ था - ये वक़्त रोज़ निकलता और हर रोज़ की ये दिनचर्या जैसे लाठी चार्ज करती हम पर।
अब स्त्री है - बंधनो और मर्यादाओ से बंधे है - अपने इस लेखक दिल को मनाने के लिए न शराब का सहारा था न ही धुँए के गुबार का।
बस मुकेश की पंकितयां ही रह रह याद आती रही फिर तो
" जाए तो जाए कहाँ - समझेगा कौन यहाँ दर्द भरे दिल की जुबां "
कोई बताये अब इस दिल की कश्मीरियत का क्या करे ? अब ये जो लेखन का बीड़ा अपने कंधे पे लिए फिर रहे है - हर किसी से मुफ्त में दाद पाने की कोशिश कर रहे है - कोई समझाए हमें - इस बीड़े को बीड़ी बना कर धुँए के छल्ले में कैसे उड़ाया जाए जबकि हम पीते ही नहीं।
और आज जब की हम एक चिंतन की अवस्था में बैठे थे - हमारे सॅटॅलाइट ने कुछ तरंगे इंटरसेप्ट की - शायद माँ सरस्वती के सर्वर से !!
अभी अभी मैसेज स्वर्ग लोक के सर्वर से मिला, लिखा था - "पुत्री , लेखन तुम्हारा कार्यक्षेत्र नहीं है - कृपया शिक्षण में ध्यान दे - विद्यार्थियों को मन लगा कर पढ़ाये- और निरीह, अबोध और लाचार -ऐसे पाठक और श्रोता गणों पर जुल्म न ढाये "
अब बताइये इतने सालो बाद हमें पता चला की हम तो बस युहीं लिख रहे थे - बस युहीं !!
लेखन और हम - ये तो बिलकुल वैसा ही हो गया था जैसे
"कहीं से ईंट कहीं से रोड़ा - भानुमति ने कुनबा जोड़ा "
अब हम तो उन प्रकाशकों , उन अखबारों , वेबसाइट , किताबो और व्यथित , शोषित से हमारे पाठकगण , श्रोतागण के लिए अपनी संवेदना ही प्रकट कर सकते है जो हमारी रचनाओ को पढ़ने की गलती कर बुद्धि का बलिदान दे गए और हमारी लिखने की महत्वाकांक्षा की भेंट चढ़ गए । खुदा खैर करे !!
भगवन सऊ नु भलु करे !! (भगवन सब भला करे )
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