अहमदाबाद।
सन - १९९७ ।
लालभाई दलपतभाई कॉलेज ऑफ़ इंजीनियरिंग।
इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग डिपार्टमेंट।
गुजरात यूनिवर्सिटी के सामने ... अपने आप में एक लैंडमार्क है , L.D.College of Engg. गुजरात में रहने वाला हर बंदा जानता है इस कॉलेज को, जो शायद सबसे पुराने इंजीनियरिंग कॉलेज में से एक है।
१९९४ में गुजरात के दूसरे गवर्नमेंट कॉलेज से BE करने के बाद १९९५ में ME करने L.D.College of Engg. आई थी शम्पा घटक। बस फिर एक ही साल वहीँ नियुक्त हो गई थी शम्पा। यूँ तो बंगाली थी मगर उसके पूरा परिवार कई दसियों सालो से मेहसाणा में बस गया था। इसलिए सारी पढाई लिखाई वहीँ हुई मेहसाणा में- गुजरातियों के बीच। ये बात अलग है - उसे गुजराती बोलनी नहीं आती थी न ही समझ आती थी - शायद कोशिश भी नहीं की थी उसने। ....
खैर, पहली विंग में protection लैब , कंप्यूटर लैब थी , वही लंबी सी लॉबी के अंत में उसके HOD , पप्पू सर..... oops सर का नाम था P. P. Upadhaya इसलिए उन्हें इस नाम से बुलाया करते थे सब कॉलेज में। उपाधयाय सर तो उसे मोडासा govt कॉलेज में भी पढ़ाते थे।
अगली विंग थी जहाँ इलेक्ट्रिकल मशीन लैब हुआ करती थी। कितनी मशीने थी वहाँ - DC shunt motor, DC series motor , induction motor - alternator - करीब पचास साल पुरानी थी वो लैब। पता नहीं किस साल में कमीशन हुई थी वो लैब।
जब मोडासा में पढ़ती थी - नया ही तो था सिर्फ तीन साल पुराना था कॉलेज GEC मोडासा। न अपनी बिल्डिंग हुआ करती थी १९९०-१९९४ के दौरान न ही हॉस्टल।
कोई labs नहीं थी सो उनकी क्लास को अहमदाबाद L.D. (इतनी पहचान काफी थी ) आना होता था।
तीन दिनों में सारे सब्जेक्ट्स ( ४-५ ) के प्रैक्टिकल का देते थे ७२ की क्लास को।
न कुछ दिखाई देता था प्रैक्टिकल्स के दौरान और न फैकल्टी की कोई आवाज़ सुनाई ही देती थी तब।
तब बड़ी अचरज भरी नज़रो से देखती थी शम्पा उन मशीनों को ...... आज वहीँ पढाई कर थी और अब लेक्चरर थी वहां। मशीन लैब के आखरी सिरे पर दो केबिन थी - जहां और फैकल्टीज बैठा करती थी।अगली विंग थी जहाँ Systems and Control लैब थी। यहाँ भी दो केबिन थी। एक जिसमे "कैपडा सर" ( .... ooops .. C.A. Patel Sir -आदत से मजबूर थी क्योंकि सब उन्हें ऐसे ही बुलाते थे ) बैठते थे और दूसरी केबिन में शम्पा और श्रेया पटेल। श्रेया और शम्पा एक ही साथ नियुक्त हुई थी।
छुट्टियां थी उन दिनों .... बच्चो की। मगर स्टाफ को तो आना होता था। मशीन लैब में रूपल मैडम की केबिन में साथ बैठी गप्पे मार रही थी शम्पा उस दिन। तारीख या दिन तो याद नहीं अब मगर साल था १९९७ ये पक्का याद है !
...... एक लड़की आई .... रूपल मैडम से मिलने। B.L.Theraja की किताब थी उसके हाथ में।
रूपल को उसने wish किया और कहा-" मैडम, आपसे networks का सिलेबस tick करवाना था - आप कर देंगी क्या ?"
रूपल ने मुस्कुराते हुए उसके हाथ से किताब ली और index में chapterwise topics tick कर दिए।
उस लड़की ने एक सरसरी निगाह शम्पा पर डाली और फिर किताब में देखने लगी। शम्पा देख रही थी उस लड़की को ... लगातार।
करीब ५ फ़ीट ५ इंच की रही होगी - दुबली पतली कद काठी। थोड़ा गेहुँवा रंग। दो चोटिया। शम्पा की आँखे उस लड़की की आँखों पर आकर ठहर गई।
वो आँखे - न बहुत बड़ी न छोटी - मगर एक्सप्रेसिव जिनकी eyelashes बहुत curvy थी। उसकी पलके औरो की आँखे अपनी ओर अनायास ही आकर्षित करती थी .
उसकी पलकों पर ही थी गई थी शम्पा की आँखे - ये पलके - ये आँखे - बहुत जानी पहचानी थी। इन्हें जानती थी - इन आँखों को बहुत अच्छे से जानती थी शम्पा। बहुत करीब से देखा था उसने इन्हें .....
चेहरा मगर बिलकुल याद नहीं आ रहा था। उस लड़की को शायद अहसास हो गया था की शम्पा उसे घूरे जा रही है। वह सकपका गई - मगर उसके हाव भाव से कहीं भी नहीं लगा की वो शम्पा को जानती है !
शायद हड़बड़ा गई थी वो लड़की। .. शम्पा भी झेंप गई। किसी को इस तरह घूरना कहाँ की शराफत थी।
वो लड़की निकल गई।
शम्पा ने रूपल से पूछा उस लड़की के बारे में तब रूपल ने बताया कि L. D. में आने से पहले सरसपुर गवर्नमेंट डिप्लोमा कॉलेज (अहमदाबाद ) में पढ़ाया करती थी। वहीँ इस लड़की को पढ़ाया था उसने फर्स्ट ईयर में । अब वह लड़की डिप्लोमा थर्ड ईयर में थी।
अचानक जैसे शम्पा को याद आ गया कि कहाँ और कब मिली थी उस लड़की से और क्यूँ वो उसे इतनी जानी पहचानी लग रही थी।
हालांकि मशीन लैब मे ही थी मगर काफी काफी आगे जा निकल चुकी थी। शम्पा भागी उसके पीछे और कुछ ही मिनटों में उस तक पहुच गई। ..
शम्पा ने उस लड़की को पुकारा " - सुनो !!!"
वो लड़की रुकी और पलटी - उसने शम्पा को अचरज भरी निगाहों से देखा - जैसे पूछ रही है हो -क्या हुआ ?
शम्पा ने अपनी धड़कनो को सँभालते हुए पूछा " -सुनो , तुम कुलदीप हो न ?"
लड़की सकपका गई , बोली "- हाँ मैं कुलदीप हूँ मगर तुम ? "
ठहर कर बोली, बुझी सी आवाज़ में, " ....... और तुम ? तुम शम्पा हो न ? "
शम्पा धड़कते दिल से बोली " हाँ, मैं शम्पा ही हूँ। पर कुलदीप तुम यहाँ क्या कर रही हो?
ये सिलेबस का क्या चक्कर है ? तुम रूपल के पास सिलेबस क्यूँ लेने आई ? तुम्हारी कोई बहन पढ़ रही है क्या अभी डिप्लोमा में ?"
कुलदीप धीरे से बोली - " नहीं , मेरा कोई भाई बहन नहीं पढ़ रहा है , ये सिलेबस मैं अपने लिए लेने आई हूँ ?"
शम्पा की आँखे फ़ैल गई -" अपने लिए ?? मगर ये कैसे हो सकता है ???? झूट बोल रही हो कुलदीप, तुम ? हद होती है - कोई इस तरह का मज़ाक करता है क्या ?" - शम्पा की आवाज़ उची हो गई। नाराज़गी झलकने लगी थी शम्पा की आवाज़ में !
"शम्पा , धीरे बोलो प्लीज ! कोई सुन लेगा ! किसी को पता नहीं है ये बात। रूपल मैडम को भी नहीं! " -कुलदीप गिड़गिड़ाई थी।
शम्पा नरम पड़ गई , बोली " सॉरी कुलदीप , मगर मैं कुछ समझ नहीं पा रही हूँ। हम साथ साथ BE फर्स्ट ईयर में थे, याद है ?? तो फिर ये डिप्लोमा का क्या चक्कर है ? लोग डिप्लोमा से डिग्री में आते है - तू डिग्री से डिप्लोमा में कैसे आ गई ? १९९० की बात है - मैं BE इलेक्ट्रिकल में थी और तू BE सिविल में थी। ... मेरी नज़र मेरी याददाश्त कमज़ोर नहीं है कुलदीप !"
अब भी जैसे असमंजस में पड़ी थी शम्पा।
ये साल था १९९७ और शम्पा ने तो BE में एडमिशन लिया था वर्ष १९९० में और १९९४ में डिग्री लेकर निकल भी गई थी और अब ME कर चुकने के बाद इस कॉलेज में लेक्चरर थी वो । सात साल - दो डिग्री और एक नौकरी - ये हासिल था शम्पा का।
और उसके सामने खड़ी थी कुलदीप ! कुलदीप कौर बग्गा।
मोडासा एक छोटा सा क़स्बा था जहाँ अभी १९८८ में ही इंजीनियरिंग कॉलेज खुला था। कुल मिला कर ईन मीन तीन कोर ब्रांच थी - इलेक्ट्रिकल , मैकेनिकल और सिविल।
अहमदाबाद से करीब ९० किलोमीटर दूर और शम्पा के घर, मेहसाणा से करीब ८० किलोमीटर दूर था मोडासा।
अहमदाबाद में एडमिशन प्रक्रिया पूरी करने के बाद जब पापा के साथ मोडासा आई थी २१ अगस्त १९९० के दिन और पहला पैर उतारा था तो कीचङ में जा पड़ा था उसका पाँव।
पुरे बस स्टैंड पे कीचड़ था ... बारिश जो हो रही थी उस दिन।
खैर , कॉलेज जो शहर से पांच किलोमीटर दूर था, वहां लोकल बस से ही जाना होता था।
जैसे तैसे पहुचे। उसका १९९० का की वो पहला बैच था जब girls कोटा शुरू किया था सरकार ने , ताकि ज्यादा से ज्यादा लड़कियाँ इंजीनियरिंग जैसे प्रोफेशनल कोर्स करे ।
कुल मिला कर २० लड़कियाँ आई थी इस १९९० के बैच में। कॉलेज जाने पर पता चला की पहले के बैच में कुल दो लडकियां थी , एक मैकेनिकल में और एक इलेक्ट्रिकल में। जो मैकेनिकल में थी वो लड़की विष्णुपुर , वेस्ट बंगाल की रहने वाली थी।
यहाँ सब को किराए के कमरे लेकर रहना होता था। इलेक्ट्रिकल में जो शम्पा की सीनियर थी उसका नाम उर्वशी पटेल था और मैकेनिकल वाली का नाम मौशमी मुखर्जी था।
पापा और शम्पा दोनों सीनियर लड़िकयों से मिले और पापा ने मौशमी से अनुरोध किया - चूँकि वो भी बांगला थी तो शम्पा को भी आसानी होती साथ रहने में।
उर्वशी और शम्पा बस स्टैंड से काफी पीछे एक सोसइटी में एक रो हाउस टाइप घर में रहती थी। उन्हें भी किराया ज्यादा लगता था - एतएव ये सुझाव अच्छा था - इस बहाने किराया भी घट जाता।
कुछ दिनों बाद शम्पा घर से एक बॉक्स , बिस्तर वगैरह लेकर आ गई थी। किराया रूम का अब भी जियादा था सो उर्वशी और मौशमी किसी चौथी लड़की की तलाश में थे - ताकि सब पर बोझ कम होता।
जब कॉलेज से लौट कर आई शम्पा तो उर्वशी और मौशमी चाय पी रहे थे।
मौशमी बोली " शम्पा , हमने एक और रूममेट को अपने साथ ले लिया है। ये भी फर्स्ट ईयर में है - मगर सिविल में है। "
अपना बैग नीचे रखते हुए शम्पा ने देखा
वो लड़की करीब ५ फ़ीट ५ इंच की रही होगी - दुबली पतली कद काठी। थोड़ा गेहुँवा रंग। और दो गुथी हुई चोटियाँ। उसकी आँखे तो ठीक मगर उसके eye lashes गज़ब के थे - मोटी - मोटी और घनी eyelashes और बहुत curved थी. अनायास ही किसी की भी आँखे उस की eyelashes पर आकर ठहर जाती।
दोनों ने हाथ मिलाया
" Hi , मैं हूँ शम्पा, शम्पा घटक !और तुम ?" शम्पा बोली।
" मैं -कुलदीप कौर बग्गा। "
उनका रूम कहे या घर - उसमे तीन कमरे थे और एक किचन।
किचन बंद कर रखा था मकान मालिक ने ताकि वे लोग कुछ गैस वगैरह का इस्तेमाल न कर सके , तो एक कमरे में उर्वशी और मौशमी रहती थी - एक उनका कुछ किचन सा था - जिसमे बरसात में कपडे भी सुखाती थी सब। सो जो बचा हुआ कमरा था ,वो मिला था कुलदीप और शम्पा को।
सेमेस्टर शुरू हो गया था। मगर कुलदीप का व्यवहार कुछ अजीब सा था। वो बात नहीं करती थी तीनो से ख़ास।
गुजरात के अक्सर जो पुराने किस्म के घर होते है - वहां मालिया (सामान रखने के लिए बनाई गई जगह ) हर कमरे में होती ही है।
कुलदीप उस पर - मालिये पर बैठ कर पढ़ती थी !! तीनो रूममेट्स को बहुत अजीब लगा था - हँसी भी थी बाद में। मगर कुलदीप को अखर गया उन तीनों का उस पर यूँ हँसना।
कुछ दिनों बाद उसकी मम्मी मिलने आई थी उनके रूम पर। आंटी को नमस्ते किया था सबने, मगर कुलदीप का मुँह चढ़ा रहा। कुलदीप का रवैय्या ऐसा ही रहा अगले कुछ दिनों तक।
एक महीना होने आया था - एक रात को खाने के बाद दोनों पढ़ने बैठे थे - कुलदीप और शम्पा। उर्वशी और शम्पा अपने कमरे में पढ़ रही थी।
दोनों को होमवर्क मिला था - इंजीनियरिंग materials सब्जेक्ट का।
शम्पा बोली थी " - सुन , कुलदीप , ये answer तूने लिखा है क्या , मुझे बता न !"
कुलदीप बोली " हाँ मैंने तो पूरा होमवर्क कर लिया , लेकिन मैं तुझे नहीं बताउंगी।"
शम्पा हैरान होते हुए बोली थी " क्यों , बता न प्लीज , मुझे समझ नहीं आ रहा !"
"मैंने कहा न नहीं बताउंगी !" - यह कहते हुए कुलदीप ने ज़ोर से धक्का मारा शम्पा को। शम्पा गिर गई।
शम्पा को भी गुस्सा आया और उसने भी धक्का मार दिया कुलदीप को।
बस फिर क्या था ! गुस्से में कुलदीप ने बाल पकड़ लिए शम्पा के।
दोनों गुथमगुथा हो गई - एक दूसरे पर चिल्लाती हुई और बाल खिंचती हुई।
आवाज़ सुनकर उर्वशी और मौशमी कमरे में दौड़े आये।
दोनों को अलग किया। शम्पा रोते हुए मौशमी से लिपट गई और सुबकते हुए बोली - "दीदी - ऐटा आमाके प्रहार कराचे ! एटा अमारे चुला उपारे जनाला। "
कुलदीप चीखी -" हाँ हाँ और मारूँगी !! और किसी ने भी ने मुझे हाथ लगाया तो उसको भी मारूँगी। "
उर्वशी और मौशमी ने उस रात अपने कमरे में सुलाया था शम्पा को। और अगले दिन कुलदीप को अल्टीमेटम दे दिया गया था की वो कोई और रूम ढूंढ ले।
फिर कुलदीप की मम्मी आई थी। .. कोशिश की मामला सुलझाने की , लेकिन उर्वशी और मौशमी ने कह दिया था कुलदीप उनके साथ नहीं रहेगी।
कहीं और शिफ्ट हो गई थी कुलदीप - कहाँ , किस सोसाइटी में , किसके साथ , शम्पा ने कभी जानने की कोशिश नहीं की और चाहा भी नहीं।
कुछ एक दिनों बाद शम्पा ने उसे कभी मोडासा में देखा भी नहीं। वैसे भी सेकंड year से ब्रांच भी बदल गई थी। अब तो बिलकुल ही बात नहीं होती थी उसके बारे में। डिपार्टमेन्ट भी अलग था उसका - और कभी शम्पा का उस ओर जाना भी नहीं होता था।
आधे से ज्यादा वक़्त तो स्ट्राइक रहती थी कॉलेज में , कभी फैकल्टी नहीं होते थे - सो आये दिन शम्पा भी घर चली जाती थी।
फिर चार साल कहाँ गुज़र गए पता नहीं चला। डिग्री लेकर सितंबर १९९४ में मोडासा छोड़ दिया था शम्पा ने। फिर कुलदीप कहाँ गई - उसका क्या हुआ - पास हुई फ़ैल हुई - शम्पा को बिलकुल पता नहीं था - दरअसल दिलचस्पी भी नहीं थी।
और आज ??
और आज वही कुलदीप उसके सामने खड़ी थी -पूरे सात साल बाद !!!
अब वो सब कड़वाहट भुला चुकी थी शम्पा - बड़ी हो गई थी - वो सब तो बचपना था ! अब वो बातें मायने नहीं रखती थी।
आज कुलदीप BE सिविल इंजीनियर होने के बजाय - डिप्लोमा इलेक्ट्रिकल थर्ड ईयर में पढ़ रही थी।
बड़ी अजीब सी गुत्थी थी - जिसने शम्पा के दिमाग को सुन्न सा कर दिया था।
"शम्पा - तुझसे झगड़ा हुआ था - फिर मैंने कॉलेज छोड़ दिया था !!"
- "पर क्यों ?? तू तो मुझसे ज्यादा अच्छी थी पढ़ने में !!!" शम्पा जैसे अभी भी अतीत में थी।
" हाँ शम्पा , मैं तुझसे पढ़ाई में अच्छी थी। " कुलदीप के आँखों में आंसू भर आये।
भर्राये गले से बोली " सुन - हम दो भाई बहन है और मम्मी पापा ....... मेरे पापा मेरी मम्मी को बहुत मारते थे - गन्दी गन्दी गाली देते थे ....... मेरी मम्मी टीचर थी । मेरे पापा बहुत शक्की थे - मेरी मम्मी पे घिनोने इलज़ाम लगाते ....... मम्मी कुछ नहीं कहती - चुप चाप मार सहती। बस हम दोनों भाई बहन से बात करती।
" मेरे पापा को मम्मी का हम दोनों से बात करना भी बरदाश्त नहीं था ....... मुझे और मेरे भाई को अलग अलग अँधेरे कमरो में बंद कर देते ....... खाना नहीं देते! बहुत मारते थे मुझे भी , भाई को भी। हम सब को घर में आपस में बात करने की इजाज़त नहीं थी ..... शम्पा !"
उसकी आँखों से आंसू बह रहे थे। अपनी रौ में कहती रही कुलदीप - "उन्ही दिनों मेरा एडमिशन हुआ था मोडासा में। ....... तुझे पता है - उन्होंने मुझे बहार भेजने से मना कर दिया ....... पढ़ाने से मना कर दिया ....... मुझे मम्मी के साथ लेने आये। मेरा नाम कटवा दिया , शम्पा !!"
" फिर हम सब - मैं , मम्मी और भाई - न जाने कितने सालो तक जैसे अपने ही घर में कैद थे। नहीं! मेरे पापा के इस स्वभाव के कारण हमारे घर कोई आता जाता नहीं था। सब रिश्तेदार जानते थे हम नरक की ज़िन्दगी जी रहे थे ... मगर किसी ने कोई मदद नहीं की ... या कर नहीं पाया। .. पता नहीं!! "
"- हम ज़िंदा थे , शम्पा ,मगर हम डरे हुए थे - डरे हुए क्या शम्पा, मरे हुए थे !!"
कहती रही कुलदीप " - चार साल पहले मेरे पापा मर गए - मर गए वो शम्पा !! वो क्या मरे हम ज़िंदा हुए शम्पा !! मैं पढ़ना चाहती थी - मगर मेरी ज़िन्दगी के सात अहम् साल चले गए ! - सात साल ! मम्मी ने हिम्मत नहीं हारी । मुझे बहुत हाथ पैर मार कर डिप्लोमा में एडमिशन दिलवाया है। अब मैं थर्ड year में हूँ शम्पा ! तुझे पता है - मैं अपनी class की टॉपर हूँ। तू देखना - मैं डिग्री भी लेकर रहूंगी !"
कुलदीप की उन भीगी हुई आँखों में एक तेज़ था - उसकी सुन्दर eyelashes में कितने आंसू कितने दर्द रुके पड़े थे - बह रहे थे "
शम्पा भी रो पड़ी थी - कुछ बोल नहीं पाई शम्पा - क्या कहती - कहने को कुछ भी नहीं था।
शम्पा बोली " उस दिन के लिए मुझे माफ़ कर देना कुलदीप" आँखों से आंसू बह रहे थे दोनों के
अचानक कुलदीप ने इधर उधर देखा। लैब खाली थी - कोई नहीं था शम्पा और कुलदीप को देखने वाला।
रुमाल से आँसू आंसू पोछते हुए कुलदीप बोली, " शम्पा , वादा कर तू किसी को मेरे बारे में कुछ नहीं बताएगी , ये कि हम दोनों साथ पढ़ते थे। मैं सब भूल चुकी हूँ - नहीं चाहती की मेरे गुज़रे कल की परछाई मेरे आज पे पड़े। तू नहीं बताएगी न ? "
" बोल शम्पा बोल,वादा कर शम्पा !" हाथ पकड़कर ज़ोर ज़ोर से शम्पा को हिलाती हुई बोली थी कुलदीप !
" वादा करती हूँ कुलदीप , आज के बाद मैं तुझे कभी नहीं पहचानूँगी, कुलदीप !" तू जा अब - तू जा यहाँ से -और खूब खुश रहना और आंटी को मेरा प्रणाम कहना " - अब कुलदीप जा चुकी थी।
देर तक उसी जगह जाने क्या देखते हुए खड़ी रही थी शम्पा
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नहीं , नहीं उस लड़की को नहीं जानती थी शम्पा !!
सन - १९९७ ।
लालभाई दलपतभाई कॉलेज ऑफ़ इंजीनियरिंग।
इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग डिपार्टमेंट।
गुजरात यूनिवर्सिटी के सामने ... अपने आप में एक लैंडमार्क है , L.D.College of Engg. गुजरात में रहने वाला हर बंदा जानता है इस कॉलेज को, जो शायद सबसे पुराने इंजीनियरिंग कॉलेज में से एक है।
१९९४ में गुजरात के दूसरे गवर्नमेंट कॉलेज से BE करने के बाद १९९५ में ME करने L.D.College of Engg. आई थी शम्पा घटक। बस फिर एक ही साल वहीँ नियुक्त हो गई थी शम्पा। यूँ तो बंगाली थी मगर उसके पूरा परिवार कई दसियों सालो से मेहसाणा में बस गया था। इसलिए सारी पढाई लिखाई वहीँ हुई मेहसाणा में- गुजरातियों के बीच। ये बात अलग है - उसे गुजराती बोलनी नहीं आती थी न ही समझ आती थी - शायद कोशिश भी नहीं की थी उसने। ....
खैर, पहली विंग में protection लैब , कंप्यूटर लैब थी , वही लंबी सी लॉबी के अंत में उसके HOD , पप्पू सर..... oops सर का नाम था P. P. Upadhaya इसलिए उन्हें इस नाम से बुलाया करते थे सब कॉलेज में। उपाधयाय सर तो उसे मोडासा govt कॉलेज में भी पढ़ाते थे।
अगली विंग थी जहाँ इलेक्ट्रिकल मशीन लैब हुआ करती थी। कितनी मशीने थी वहाँ - DC shunt motor, DC series motor , induction motor - alternator - करीब पचास साल पुरानी थी वो लैब। पता नहीं किस साल में कमीशन हुई थी वो लैब।
जब मोडासा में पढ़ती थी - नया ही तो था सिर्फ तीन साल पुराना था कॉलेज GEC मोडासा। न अपनी बिल्डिंग हुआ करती थी १९९०-१९९४ के दौरान न ही हॉस्टल।
कोई labs नहीं थी सो उनकी क्लास को अहमदाबाद L.D. (इतनी पहचान काफी थी ) आना होता था।
तीन दिनों में सारे सब्जेक्ट्स ( ४-५ ) के प्रैक्टिकल का देते थे ७२ की क्लास को।
न कुछ दिखाई देता था प्रैक्टिकल्स के दौरान और न फैकल्टी की कोई आवाज़ सुनाई ही देती थी तब।
तब बड़ी अचरज भरी नज़रो से देखती थी शम्पा उन मशीनों को ...... आज वहीँ पढाई कर थी और अब लेक्चरर थी वहां। मशीन लैब के आखरी सिरे पर दो केबिन थी - जहां और फैकल्टीज बैठा करती थी।अगली विंग थी जहाँ Systems and Control लैब थी। यहाँ भी दो केबिन थी। एक जिसमे "कैपडा सर" ( .... ooops .. C.A. Patel Sir -आदत से मजबूर थी क्योंकि सब उन्हें ऐसे ही बुलाते थे ) बैठते थे और दूसरी केबिन में शम्पा और श्रेया पटेल। श्रेया और शम्पा एक ही साथ नियुक्त हुई थी।
छुट्टियां थी उन दिनों .... बच्चो की। मगर स्टाफ को तो आना होता था। मशीन लैब में रूपल मैडम की केबिन में साथ बैठी गप्पे मार रही थी शम्पा उस दिन। तारीख या दिन तो याद नहीं अब मगर साल था १९९७ ये पक्का याद है !
...... एक लड़की आई .... रूपल मैडम से मिलने। B.L.Theraja की किताब थी उसके हाथ में।
रूपल को उसने wish किया और कहा-" मैडम, आपसे networks का सिलेबस tick करवाना था - आप कर देंगी क्या ?"
रूपल ने मुस्कुराते हुए उसके हाथ से किताब ली और index में chapterwise topics tick कर दिए।
उस लड़की ने एक सरसरी निगाह शम्पा पर डाली और फिर किताब में देखने लगी। शम्पा देख रही थी उस लड़की को ... लगातार।
करीब ५ फ़ीट ५ इंच की रही होगी - दुबली पतली कद काठी। थोड़ा गेहुँवा रंग। दो चोटिया। शम्पा की आँखे उस लड़की की आँखों पर आकर ठहर गई।
वो आँखे - न बहुत बड़ी न छोटी - मगर एक्सप्रेसिव जिनकी eyelashes बहुत curvy थी। उसकी पलके औरो की आँखे अपनी ओर अनायास ही आकर्षित करती थी .
उसकी पलकों पर ही थी गई थी शम्पा की आँखे - ये पलके - ये आँखे - बहुत जानी पहचानी थी। इन्हें जानती थी - इन आँखों को बहुत अच्छे से जानती थी शम्पा। बहुत करीब से देखा था उसने इन्हें .....
चेहरा मगर बिलकुल याद नहीं आ रहा था। उस लड़की को शायद अहसास हो गया था की शम्पा उसे घूरे जा रही है। वह सकपका गई - मगर उसके हाव भाव से कहीं भी नहीं लगा की वो शम्पा को जानती है !
शायद हड़बड़ा गई थी वो लड़की। .. शम्पा भी झेंप गई। किसी को इस तरह घूरना कहाँ की शराफत थी।
वो लड़की निकल गई।
शम्पा ने रूपल से पूछा उस लड़की के बारे में तब रूपल ने बताया कि L. D. में आने से पहले सरसपुर गवर्नमेंट डिप्लोमा कॉलेज (अहमदाबाद ) में पढ़ाया करती थी। वहीँ इस लड़की को पढ़ाया था उसने फर्स्ट ईयर में । अब वह लड़की डिप्लोमा थर्ड ईयर में थी।
अचानक जैसे शम्पा को याद आ गया कि कहाँ और कब मिली थी उस लड़की से और क्यूँ वो उसे इतनी जानी पहचानी लग रही थी।
हालांकि मशीन लैब मे ही थी मगर काफी काफी आगे जा निकल चुकी थी। शम्पा भागी उसके पीछे और कुछ ही मिनटों में उस तक पहुच गई। ..
शम्पा ने उस लड़की को पुकारा " - सुनो !!!"
वो लड़की रुकी और पलटी - उसने शम्पा को अचरज भरी निगाहों से देखा - जैसे पूछ रही है हो -क्या हुआ ?
शम्पा ने अपनी धड़कनो को सँभालते हुए पूछा " -सुनो , तुम कुलदीप हो न ?"
लड़की सकपका गई , बोली "- हाँ मैं कुलदीप हूँ मगर तुम ? "
ठहर कर बोली, बुझी सी आवाज़ में, " ....... और तुम ? तुम शम्पा हो न ? "
शम्पा धड़कते दिल से बोली " हाँ, मैं शम्पा ही हूँ। पर कुलदीप तुम यहाँ क्या कर रही हो?
ये सिलेबस का क्या चक्कर है ? तुम रूपल के पास सिलेबस क्यूँ लेने आई ? तुम्हारी कोई बहन पढ़ रही है क्या अभी डिप्लोमा में ?"
कुलदीप धीरे से बोली - " नहीं , मेरा कोई भाई बहन नहीं पढ़ रहा है , ये सिलेबस मैं अपने लिए लेने आई हूँ ?"
शम्पा की आँखे फ़ैल गई -" अपने लिए ?? मगर ये कैसे हो सकता है ???? झूट बोल रही हो कुलदीप, तुम ? हद होती है - कोई इस तरह का मज़ाक करता है क्या ?" - शम्पा की आवाज़ उची हो गई। नाराज़गी झलकने लगी थी शम्पा की आवाज़ में !
"शम्पा , धीरे बोलो प्लीज ! कोई सुन लेगा ! किसी को पता नहीं है ये बात। रूपल मैडम को भी नहीं! " -कुलदीप गिड़गिड़ाई थी।
शम्पा नरम पड़ गई , बोली " सॉरी कुलदीप , मगर मैं कुछ समझ नहीं पा रही हूँ। हम साथ साथ BE फर्स्ट ईयर में थे, याद है ?? तो फिर ये डिप्लोमा का क्या चक्कर है ? लोग डिप्लोमा से डिग्री में आते है - तू डिग्री से डिप्लोमा में कैसे आ गई ? १९९० की बात है - मैं BE इलेक्ट्रिकल में थी और तू BE सिविल में थी। ... मेरी नज़र मेरी याददाश्त कमज़ोर नहीं है कुलदीप !"
अब भी जैसे असमंजस में पड़ी थी शम्पा।
ये साल था १९९७ और शम्पा ने तो BE में एडमिशन लिया था वर्ष १९९० में और १९९४ में डिग्री लेकर निकल भी गई थी और अब ME कर चुकने के बाद इस कॉलेज में लेक्चरर थी वो । सात साल - दो डिग्री और एक नौकरी - ये हासिल था शम्पा का।
और उसके सामने खड़ी थी कुलदीप ! कुलदीप कौर बग्गा।
मोडासा एक छोटा सा क़स्बा था जहाँ अभी १९८८ में ही इंजीनियरिंग कॉलेज खुला था। कुल मिला कर ईन मीन तीन कोर ब्रांच थी - इलेक्ट्रिकल , मैकेनिकल और सिविल।
अहमदाबाद से करीब ९० किलोमीटर दूर और शम्पा के घर, मेहसाणा से करीब ८० किलोमीटर दूर था मोडासा।
अहमदाबाद में एडमिशन प्रक्रिया पूरी करने के बाद जब पापा के साथ मोडासा आई थी २१ अगस्त १९९० के दिन और पहला पैर उतारा था तो कीचङ में जा पड़ा था उसका पाँव।
पुरे बस स्टैंड पे कीचड़ था ... बारिश जो हो रही थी उस दिन।
खैर , कॉलेज जो शहर से पांच किलोमीटर दूर था, वहां लोकल बस से ही जाना होता था।
जैसे तैसे पहुचे। उसका १९९० का की वो पहला बैच था जब girls कोटा शुरू किया था सरकार ने , ताकि ज्यादा से ज्यादा लड़कियाँ इंजीनियरिंग जैसे प्रोफेशनल कोर्स करे ।
कुल मिला कर २० लड़कियाँ आई थी इस १९९० के बैच में। कॉलेज जाने पर पता चला की पहले के बैच में कुल दो लडकियां थी , एक मैकेनिकल में और एक इलेक्ट्रिकल में। जो मैकेनिकल में थी वो लड़की विष्णुपुर , वेस्ट बंगाल की रहने वाली थी।
यहाँ सब को किराए के कमरे लेकर रहना होता था। इलेक्ट्रिकल में जो शम्पा की सीनियर थी उसका नाम उर्वशी पटेल था और मैकेनिकल वाली का नाम मौशमी मुखर्जी था।
पापा और शम्पा दोनों सीनियर लड़िकयों से मिले और पापा ने मौशमी से अनुरोध किया - चूँकि वो भी बांगला थी तो शम्पा को भी आसानी होती साथ रहने में।
उर्वशी और शम्पा बस स्टैंड से काफी पीछे एक सोसइटी में एक रो हाउस टाइप घर में रहती थी। उन्हें भी किराया ज्यादा लगता था - एतएव ये सुझाव अच्छा था - इस बहाने किराया भी घट जाता।
कुछ दिनों बाद शम्पा घर से एक बॉक्स , बिस्तर वगैरह लेकर आ गई थी। किराया रूम का अब भी जियादा था सो उर्वशी और मौशमी किसी चौथी लड़की की तलाश में थे - ताकि सब पर बोझ कम होता।
जब कॉलेज से लौट कर आई शम्पा तो उर्वशी और मौशमी चाय पी रहे थे।
मौशमी बोली " शम्पा , हमने एक और रूममेट को अपने साथ ले लिया है। ये भी फर्स्ट ईयर में है - मगर सिविल में है। "
अपना बैग नीचे रखते हुए शम्पा ने देखा
वो लड़की करीब ५ फ़ीट ५ इंच की रही होगी - दुबली पतली कद काठी। थोड़ा गेहुँवा रंग। और दो गुथी हुई चोटियाँ। उसकी आँखे तो ठीक मगर उसके eye lashes गज़ब के थे - मोटी - मोटी और घनी eyelashes और बहुत curved थी. अनायास ही किसी की भी आँखे उस की eyelashes पर आकर ठहर जाती।
दोनों ने हाथ मिलाया
" Hi , मैं हूँ शम्पा, शम्पा घटक !और तुम ?" शम्पा बोली।
" मैं -कुलदीप कौर बग्गा। "
उनका रूम कहे या घर - उसमे तीन कमरे थे और एक किचन।
किचन बंद कर रखा था मकान मालिक ने ताकि वे लोग कुछ गैस वगैरह का इस्तेमाल न कर सके , तो एक कमरे में उर्वशी और मौशमी रहती थी - एक उनका कुछ किचन सा था - जिसमे बरसात में कपडे भी सुखाती थी सब। सो जो बचा हुआ कमरा था ,वो मिला था कुलदीप और शम्पा को।
सेमेस्टर शुरू हो गया था। मगर कुलदीप का व्यवहार कुछ अजीब सा था। वो बात नहीं करती थी तीनो से ख़ास।
गुजरात के अक्सर जो पुराने किस्म के घर होते है - वहां मालिया (सामान रखने के लिए बनाई गई जगह ) हर कमरे में होती ही है।
कुलदीप उस पर - मालिये पर बैठ कर पढ़ती थी !! तीनो रूममेट्स को बहुत अजीब लगा था - हँसी भी थी बाद में। मगर कुलदीप को अखर गया उन तीनों का उस पर यूँ हँसना।
कुछ दिनों बाद उसकी मम्मी मिलने आई थी उनके रूम पर। आंटी को नमस्ते किया था सबने, मगर कुलदीप का मुँह चढ़ा रहा। कुलदीप का रवैय्या ऐसा ही रहा अगले कुछ दिनों तक।
एक महीना होने आया था - एक रात को खाने के बाद दोनों पढ़ने बैठे थे - कुलदीप और शम्पा। उर्वशी और शम्पा अपने कमरे में पढ़ रही थी।
दोनों को होमवर्क मिला था - इंजीनियरिंग materials सब्जेक्ट का।
शम्पा बोली थी " - सुन , कुलदीप , ये answer तूने लिखा है क्या , मुझे बता न !"
कुलदीप बोली " हाँ मैंने तो पूरा होमवर्क कर लिया , लेकिन मैं तुझे नहीं बताउंगी।"
शम्पा हैरान होते हुए बोली थी " क्यों , बता न प्लीज , मुझे समझ नहीं आ रहा !"
"मैंने कहा न नहीं बताउंगी !" - यह कहते हुए कुलदीप ने ज़ोर से धक्का मारा शम्पा को। शम्पा गिर गई।
शम्पा को भी गुस्सा आया और उसने भी धक्का मार दिया कुलदीप को।
बस फिर क्या था ! गुस्से में कुलदीप ने बाल पकड़ लिए शम्पा के।
दोनों गुथमगुथा हो गई - एक दूसरे पर चिल्लाती हुई और बाल खिंचती हुई।
आवाज़ सुनकर उर्वशी और मौशमी कमरे में दौड़े आये।
दोनों को अलग किया। शम्पा रोते हुए मौशमी से लिपट गई और सुबकते हुए बोली - "दीदी - ऐटा आमाके प्रहार कराचे ! एटा अमारे चुला उपारे जनाला। "
कुलदीप चीखी -" हाँ हाँ और मारूँगी !! और किसी ने भी ने मुझे हाथ लगाया तो उसको भी मारूँगी। "
उर्वशी और मौशमी ने उस रात अपने कमरे में सुलाया था शम्पा को। और अगले दिन कुलदीप को अल्टीमेटम दे दिया गया था की वो कोई और रूम ढूंढ ले।
फिर कुलदीप की मम्मी आई थी। .. कोशिश की मामला सुलझाने की , लेकिन उर्वशी और मौशमी ने कह दिया था कुलदीप उनके साथ नहीं रहेगी।
कहीं और शिफ्ट हो गई थी कुलदीप - कहाँ , किस सोसाइटी में , किसके साथ , शम्पा ने कभी जानने की कोशिश नहीं की और चाहा भी नहीं।
कुछ एक दिनों बाद शम्पा ने उसे कभी मोडासा में देखा भी नहीं। वैसे भी सेकंड year से ब्रांच भी बदल गई थी। अब तो बिलकुल ही बात नहीं होती थी उसके बारे में। डिपार्टमेन्ट भी अलग था उसका - और कभी शम्पा का उस ओर जाना भी नहीं होता था।
आधे से ज्यादा वक़्त तो स्ट्राइक रहती थी कॉलेज में , कभी फैकल्टी नहीं होते थे - सो आये दिन शम्पा भी घर चली जाती थी।
फिर चार साल कहाँ गुज़र गए पता नहीं चला। डिग्री लेकर सितंबर १९९४ में मोडासा छोड़ दिया था शम्पा ने। फिर कुलदीप कहाँ गई - उसका क्या हुआ - पास हुई फ़ैल हुई - शम्पा को बिलकुल पता नहीं था - दरअसल दिलचस्पी भी नहीं थी।
और आज ??
और आज वही कुलदीप उसके सामने खड़ी थी -पूरे सात साल बाद !!!
अब वो सब कड़वाहट भुला चुकी थी शम्पा - बड़ी हो गई थी - वो सब तो बचपना था ! अब वो बातें मायने नहीं रखती थी।
आज कुलदीप BE सिविल इंजीनियर होने के बजाय - डिप्लोमा इलेक्ट्रिकल थर्ड ईयर में पढ़ रही थी।
बड़ी अजीब सी गुत्थी थी - जिसने शम्पा के दिमाग को सुन्न सा कर दिया था।
"शम्पा - तुझसे झगड़ा हुआ था - फिर मैंने कॉलेज छोड़ दिया था !!"
- "पर क्यों ?? तू तो मुझसे ज्यादा अच्छी थी पढ़ने में !!!" शम्पा जैसे अभी भी अतीत में थी।
" हाँ शम्पा , मैं तुझसे पढ़ाई में अच्छी थी। " कुलदीप के आँखों में आंसू भर आये।
भर्राये गले से बोली " सुन - हम दो भाई बहन है और मम्मी पापा ....... मेरे पापा मेरी मम्मी को बहुत मारते थे - गन्दी गन्दी गाली देते थे ....... मेरी मम्मी टीचर थी । मेरे पापा बहुत शक्की थे - मेरी मम्मी पे घिनोने इलज़ाम लगाते ....... मम्मी कुछ नहीं कहती - चुप चाप मार सहती। बस हम दोनों भाई बहन से बात करती।
" मेरे पापा को मम्मी का हम दोनों से बात करना भी बरदाश्त नहीं था ....... मुझे और मेरे भाई को अलग अलग अँधेरे कमरो में बंद कर देते ....... खाना नहीं देते! बहुत मारते थे मुझे भी , भाई को भी। हम सब को घर में आपस में बात करने की इजाज़त नहीं थी ..... शम्पा !"
उसकी आँखों से आंसू बह रहे थे। अपनी रौ में कहती रही कुलदीप - "उन्ही दिनों मेरा एडमिशन हुआ था मोडासा में। ....... तुझे पता है - उन्होंने मुझे बहार भेजने से मना कर दिया ....... पढ़ाने से मना कर दिया ....... मुझे मम्मी के साथ लेने आये। मेरा नाम कटवा दिया , शम्पा !!"
" फिर हम सब - मैं , मम्मी और भाई - न जाने कितने सालो तक जैसे अपने ही घर में कैद थे। नहीं! मेरे पापा के इस स्वभाव के कारण हमारे घर कोई आता जाता नहीं था। सब रिश्तेदार जानते थे हम नरक की ज़िन्दगी जी रहे थे ... मगर किसी ने कोई मदद नहीं की ... या कर नहीं पाया। .. पता नहीं!! "
"- हम ज़िंदा थे , शम्पा ,मगर हम डरे हुए थे - डरे हुए क्या शम्पा, मरे हुए थे !!"
कहती रही कुलदीप " - चार साल पहले मेरे पापा मर गए - मर गए वो शम्पा !! वो क्या मरे हम ज़िंदा हुए शम्पा !! मैं पढ़ना चाहती थी - मगर मेरी ज़िन्दगी के सात अहम् साल चले गए ! - सात साल ! मम्मी ने हिम्मत नहीं हारी । मुझे बहुत हाथ पैर मार कर डिप्लोमा में एडमिशन दिलवाया है। अब मैं थर्ड year में हूँ शम्पा ! तुझे पता है - मैं अपनी class की टॉपर हूँ। तू देखना - मैं डिग्री भी लेकर रहूंगी !"
कुलदीप की उन भीगी हुई आँखों में एक तेज़ था - उसकी सुन्दर eyelashes में कितने आंसू कितने दर्द रुके पड़े थे - बह रहे थे "
शम्पा भी रो पड़ी थी - कुछ बोल नहीं पाई शम्पा - क्या कहती - कहने को कुछ भी नहीं था।
शम्पा बोली " उस दिन के लिए मुझे माफ़ कर देना कुलदीप" आँखों से आंसू बह रहे थे दोनों के
अचानक कुलदीप ने इधर उधर देखा। लैब खाली थी - कोई नहीं था शम्पा और कुलदीप को देखने वाला।
रुमाल से आँसू आंसू पोछते हुए कुलदीप बोली, " शम्पा , वादा कर तू किसी को मेरे बारे में कुछ नहीं बताएगी , ये कि हम दोनों साथ पढ़ते थे। मैं सब भूल चुकी हूँ - नहीं चाहती की मेरे गुज़रे कल की परछाई मेरे आज पे पड़े। तू नहीं बताएगी न ? "
" बोल शम्पा बोल,वादा कर शम्पा !" हाथ पकड़कर ज़ोर ज़ोर से शम्पा को हिलाती हुई बोली थी कुलदीप !
" वादा करती हूँ कुलदीप , आज के बाद मैं तुझे कभी नहीं पहचानूँगी, कुलदीप !" तू जा अब - तू जा यहाँ से -और खूब खुश रहना और आंटी को मेरा प्रणाम कहना " - अब कुलदीप जा चुकी थी।
देर तक उसी जगह जाने क्या देखते हुए खड़ी रही थी शम्पा
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नहीं , नहीं उस लड़की को नहीं जानती थी शम्पा !!
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