1 February 2016

कब से रस्ता देखे शाम

सुबह का  उगता सूरज और शाम का ढलता सूरज - दोनों बहुत लुभाते है मुझे - न जाने क्यूँ।  -शायद मेरे नाम का असर है ये -संध्या - मतलब साँझ - जब सूरज डूब जाता है।  न जाने कितना कुछ लिखा है मैंने शामों के नरम अंधेरों के बारे में , सुबह की गर्म से उजालो के बारे में।  कभी प्रेयसी सी दिन भर , चाँद  का इंतज़ार करती शाम - तो कभी बेवफ़ा सी - जो न चाँद की है न सूरज की - न दिन उसे अपनाता है और न रात।  दो पहरो को एक दूसरे से मिलती ये शामें - ये सुबहें।  
शायद किसी के इंतज़ार का नाम है शाम - वो वक़्त जब सूरज अपनी प्रेयसी धूप  से बिछड़ता है - वादा लेता है फिर अगले दिन मिलने का। .... 
एक आतुरता - एक अकुलाहट लिए चांदनी, अपने चाँद का इंतज़ार करती  चाँदनी,  कहती है शाम से - तू ढल जा - रात आएगी - अपने प्रिय से मिलना है मुझे। 

ये साँझ, मेरी तरह कोई शिकायत नहीं करती - बस देखती है अपलक उस ढलते हुए सूरज को जिसकी खूबसूरती अपने चरम सीमा पर होती है - खूबसूरत सा - सुनहरा सा ढलता,  पिघलता सा आसमान की आगोश में समाता  हुआ सूरज  । ...... 

Courtsey  Internet 
और देखती है  दूसरी ओर  उभर आते रोज़ नित नया रूप लिए उस चाँद  को एकटक ...... शीतल सा ठंडक लिए हुए नरम सी चांदनी बिखेरते उस चाँद को । 
सदियों से ये शाम दूर क्षितिज पर जा बैठती है  किसी कोने में  ......   जाने  क्या क्या सोचती रहती है - सोचती है   शायद, कोई  न कोई तो आएगा एक रोज़ !!




झुरमुट में फिर बैठी शाम 
 जाने क्या क्या सोचे शाम ?

सूरज ने  अपनाया ना 
चाँद से  हुई, पराई  शाम। 

वस्ल की सुबह गुज़र गई 
हिज़्र की फिर से आई शाम। 

आँखे  भीनी, साँस है   भीनीं
ओस सी गीली, मेरी शाम।

ख़ुशियों के दिन गुज़र गए 
आई अब के ग़म की शाम। 
राह न गुज़रे जिसकी कोई 
उस  मंज़िल से गुज़री शाम। 

हर लम्हा करती कोलाहल
चुप सी है पर आज की शाम।

'साँझ' ढले अब तो आजा
कब से  रस्ता  देखे शाम।   









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