ओपन इकॉनमी हो जाने से हमारे स्वाद का, ख़्वाबों का ख्वाहिशों का दायर बहुत बढ़ गया है।
बचपन में जैसा कि मुझे याद है - खट्टी मीठी गोलियां ,या पारले की कुछ चॉक्लेट्स जैसी अमूमन कुछ ही किस्म की चॉक्लेट्स मिला करती थी बाजार में।
हाँ, उन दिनों अमूल की चॉक्लेट्स की बड़ी धूम थी - बड़े सारे flavours में आती थी - मिल्क, bitter, फ्रूट्स एंड नट्स वैगरह - ये सब तो खूब खाई थी !
याद नहीं मगर, कैडबरी डेरी मिल्क हुआ करती थी शायद, अगर थी भी तो खरीदने और खाने की इतनी हैसियत भी कहाँ हुआ करती थी-जेबखर्च किस चिड़िया का नाम है जानते भी न थे
हाँ ,कोका-कोला तो याद है मुझे- गोल्डस्पॉट हुआ करता था ऑरेंज ड्रिंक में - लिम्का तब भी था !
पहली बार भूटान में थिम्पू में, स्कूल funfare में पी थी - तब ३५० ml पांच रुपये में आया करती थी। पहली बार जब पी - सर भन्ना गया था - आधी पी कर छोड़ दी थी और उन पाँच रुपयों का बेफिज़ूल खर्च होने का मलाल काफी समय तक रहा। ये बात होगी शायद १९८४ की - आठवीं में पढ़ती थी मैं उन दिनों !
कुरकरे, mad ट्रिएंगल्स, uncle chips वैगरह नहीं हुआ करते थे उन दिनों । और आज तो न जाने कितने किस्म के ड्रिंक्स, फ़ास्ट फ़ूड, ड्राई नमकीन, नाना किस्म की मिठाइयां , चॉक्लेट्स , देशी विदेशी खान पान जैसे -थाई फ़ूड, मेक्सिकन , Chinese , इतालियन और जाने क्या क्या!
खाने पीना ही क्यों, उन दिनों तो ख्वाहिशे भी देसी हुआ करती थी! उनमे भी कम ही वराइटी हुआ करती थी उन दिनों! लेकिन बहुत खुश थी ख्वाहिशे! हाँ! उन दिनों गाड़ी नहीं थी, साइकल भी नहीं थी - पैदल चला करते थे सपने - किलोमीटर के किलोमीटर ! बड़े बड़े मैदान - नदिया , सेब के बागान थे - गन्ने के खेत थे - आम के पेड़ थे- क्या कुछ नहीं था उन दिनों ! तो क्या, जो सिल्क महँगा हुआ करता था, मगर ये ख्वाब तो तब भी सिल्की से ही थे! और चखने में चटपटे - खट्टे-मीठे और करारे से!
वो तो अब भी है! मगर हाँ, आज ख्वाबो में थोड़ी variety ज्यादा है - Indian तो है ही - थोड़े मेक्सिकन, Japanese , Thai , Chinese etc etc भी है।
बस कुछ ऐसे ही ख़्वाबो का लेखा-जोखा पेशे-ऐ -नज़र है
ख़्वाब करारे
कुछ मीठे खारे
कुछ सिल्की सिल्की से ..
या Schmitten सारे !
पेप्सी की
खुली उस bottle पे .....
पुराने ढाबे पे
नई सी होटल पे .....
जाम छलकाते है ,
मस्ती में गाते है,
बहके बहके है,
ख़्वाब वो सारे .....
छोटी सी कमाई पे
नरम सी उस रज़ाई पे
ग़र्म सिगड़ी की
आँच सिकाई पे
रिश्ते फरियाते है
लड़ भिड़ भी जाते है
कितने निगोड़े है
ख़्वाब हमारे
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