आसमा में बादलो ने हमेशा
कैसे कैसे गुल खिलाये
पेड़ पंछी और धरा को न जाने ये कितना सतायें ।
काले काले कपडे पहनकर
दामिनी संग झूम झूमकर
पींगे पींगे ले , सावन के गीत गाये।
कभी गुस्से में होके लाल पीले
यूँ गरजकर और बरसकर
नदी नाले झरने सागर में ये पूर लाये ।
पेड़ो की शाखों में फंसकर
तो कभी पर्वतो पे चढ़कर
पंछियों सा शोर कितना ये मचाये।
चाँद को भी घेर ले ये
सूरज को भी उगने न दे ये
कई बार दिन में रात दिखाए।
दिन सहम जाये कभी तो
रात डर से थरथराए
डरा के दोनों को फिर ये देखो कैसे खिलखिलाए
मुंडेर पे बैठी हवा के
कानो में क्या ये बुदबुदाये
बावरी होकर हवा फिर मीलो तलक इसको भगाए।
ऐ बादलो क्यूँ हमसे रूठे ?
इस बरस तुम क्यों न लौटे ?
आ जाओ ! सब है बैठे तेरी राह में पलके बिछाये।
No comments:
Post a Comment