मैं किसी को ढूंढती हूँ एक ज़माने से कहीं ?
रोज़ मिलते है कितने , पर वो ही मिलता नहीं।
एक रोज़ मिला था मुझे मुसाफिर कोई
क्या जानू मैं थी गलत या मैं थी सही
मैं तो समझी थी कि, ये तो होगा ही वही
जिसे सदियों से मेरी ये आँखे है ढूंढ रही।
उसने भी बाते मुझे कुछ इस अंदाज़ में कही
सारा जहाँ छोड़ के मैं बस उसकी हो ही गयी।
सपने टूटे, न बचा आसमाँ और न ज़मीन रही
मैं हुआ करती थी क्या और क्या मैं हो ये गयी।
मौत चाही थी मगर कमबख्त वो भी न मिली
हाँ बस जी ही रही हूँ मगर अब मैं ज़िंदा न रही
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