ये जो सूरज है न
ये हर शाम
नदी पे
सुनहरा आईना
चमकाता है ...
कितनी ही किरणे
नज़ीर बन
नदी के जिस्म को
छलनी कर जाती है
और फिर
भीतर कुछ पनपने लगता है
कितना कुछ जनने लगता है
नदी की कोख में ..
वो पलता रहता है
बहता रहता है
पहाड़ों से होते हुए
शहर शहर
बढ़ता हुआ
समय के साथ साथ
सफ़र के साथ साथ
दर्द भी है
पीड़ा भी है
नदी फिर भी
खिलखिलाती है
और इठलाती है
उकसाती है सूरज को
और ये राबते
यूं ही चलते रहते है
और
फिर रात आती है
कभी स्याह
तो उजली सी...
रातों में तो
ख़्वाब नींद और
सारी मछलियां भी सो जाती है
जागते है
नदी किनारे
घास में पल रहे झींगुर
बस शोर मचाते है
जाने क्यों
नदी फिर भी
कुछ नहीं कहती ...
बस बहती रहती है
अंधेरों के बिछौने में
चुपचाप अपने
भीतर उबल रहे
एहसासों को बहा देती है
समुंदर में
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