घूंट घूंट जहर ए इश्क़ का जब जब मैं पी गई
इक पल को जी गई भले, एक उम्र मर गई
हर दैरो दरम पे दस्तके देती ही मैं फिरी
तुझको मैं ढूंढते हुए किस किस के दर गई
हो जाए काश कुबूल तू दुआओं में मेरी
भगवान के घर कभी, कभी खुदा के घर गई
तुम से मिली तो ख्वाबों की, ताबीर हो गई
था इश्क़ पर गुनाह, और गुनाह कर गई
शामिल थे गुनाह में दुनिया जहां के लोग
गठरी ये पाप की कब कहां किस के सर गई
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