शाम दुआरे बैठी कब से
दिन ये ढले, कब जाने
आब सुनहरी स्याह हुई अब
रात चले, कब जाने
खुशबू तेरी इन बेलों में
सर्द हवा ये लाई है
चादर की सिलवट भी तेरी
यादें लेकर आई है
उम्र खड़ी है दस्तक देते,
आओगे तुम , कब जाने ?
कुछ ख़्वाबों ने फिर न जाने
कैसी किस्मत पाई है
आवारा है बेगैरत है
तोहमत ऐसी पाई है
ख़्वाब अधूरे, होंगे पूरे
कौन कहां और कब जाने
कुछ रिश्ते है उलझे से
कुछ रिश्तों में खाई है
संभले कैसे आखिर कोई
बस फिसलन और काई है
जिस्म छिला है रूह छिली है
घाव भरे ये कब जाने
कौन पुकारे किसे बुलाए
आवाज़ें हरजाई है
लौट के आया कब क्या कोई
है साया वो परछाई है
असमंजस के दोराहे पे
कौन रुके कब जाने
4 comments:
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" रविवार 17 जुलाई 2022 को साझा की गयी है....
पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
सुंदर ❤️
कौन रुके कब जाने .... मन के उद्गारों को बखूबी लिखा है ।।
वाह! बहुत सुंदर।
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