तेरे साए से लिपटकर रोया होता
इतना तन्हा मजबूर मैं गोया होता
गुल भी होते और बुलबुल होती
सूखे बंजर मे शजर कोई बोया होता
आ ही जाते ख्वाब तुम्हारे सूनी सी इन आँखों मे
किसी रात गर सूकू से जो मैं भी सोया होता
करना ही था जब तमन्नाओं का क़त्ल यूँही
अपने दामन से काश ये तो दाग़ धोया होता
सर झुकाए हुए यूं न चलता ' ज़िंदगी'
गर गुनाहों को कांधो पे यूं न ढोया होता
1 comment:
जज़्बातों से लबरेज़ ग़ज़ल । बहुत खूब
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