इन जाड़ों में
सुबह सुबह
जाने क्यूँ ये मुई धूप
आ धमक आती है
और आ के धम्म से
बैठ जाती है
मसहरी पे .
और फिर
ज़बरन ही छन के
पलकों से
आँखो में
घुसी ही चली जाती है
बरबस ही नींद
ठिसुआ के
उठ जाती है
बुदबुदातीं हुई
बड़बड़ाती हुई
उधर ख़्वाब सारे
जैसे सकते में आ जाते है !
कुछ तो सकपका के
लिबास पहन लेते है
और...
एक दौड़ लगा देते
कुछ बेहिस बेलिबास ख़्वाब
दिल की धमनियों की ओर ...
ये धूप बरबस ही
अपनी ग़र्म
फ़ाहो सी उँगलियों से
देह को
छूने लगती है
और
चिकोटी काटने लगती है ..
और फिर
बड़बड़ाते हुए
ये नींद अनायास ही
सवेरे को
हाथ पकड़ बिस्तर पे
गिरा लेती है
और
धूप के आग़ोश में
लिपट फिर सो जाती है
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