21 October 2018

मैं प्रेम पाना चाहती हूँ - edited

मैंने  कहा -
सुनो ,
मेरा प्रेम 
उत्कट है विकल है 
अधीर है 
उन खोह और कन्दराओं में 
महलों में 
प्रेम की अनुभूति व्यक्त करती 
भाव भंगिमाएँ वाली 
मानव प्रतिकृतियाँ, तैल चित्र 
की तरह 
जिसमें 
प्रेम की ललक है 
वेदना है संवेदना है 
ये प्रेम 
पुकारता है मुझे 
खिंचता है मुझे अपनी ओर 
कि मैं भी जियूँ 
खजुराहो के प्रतिबिम्बित 
उस उत्कट प्रेम को
सदा के लिए 

उसने  कहा
नहीं !
प्रेम तो है 
अंकित चित्रित 
मीरा के भजनों में 
राधा के मनुहार में 
जो विलीन हैं ध्यान में,
मगन है 
उस परम ब्रह्म के प्रेम में 
उस अनंत साधना 
में लीन 
उस प्रेम को पूजती  
उस  ईश्वरीय अनुभूति को 
प्राप्त करने हेतु 
सदा के लिए !


मैंने कहा 
सुनो
ये दिग्भ्रमित मन तन और बुद्धि 
तर्क - कुतर्क करते है 
और कहते  है कि 
देह प्रेम ही तो है -
साधना,उपासना 
और आराधना !
यही तो है 
निमित्त इस प्रेम को पाने का 
फिर चाहे वो मीरा का हो 
या राधा का
हीर या रांझा का !
ये सभी तो 
परम ज्ञान 
परम ब्रह्म के 
अनंत प्रेम 
को साधने का प्रयत्न 
करते करते 
विलीन हो गए 
उसी प्रेम में,
सदा के लिए !

उसने कहा
सुनो प्रिये !
प्रेम ही है 
 परमात्मा !परम ईश्वर !
अनंत !आदि !
फूँक दो -
अपने अस्तित्व को !
अपने तन मन 
और आत्मा को 
विलीन कर दो 
स्वयं को -
इसी अनंत 
निर्विकार , निराकार प्रेम में,
सदा के लिए !


मैंने कहा-
सुनो प्रिये,
मैं अमर बेल सी 
लिपट कर 
प्रेम के 
अस्तित्व-आसमां पे 
छा जाना चाहती हूँ 
और 
समा जाना चाहती हूँ 
इसकी गहरी जड़ो में !
प्रेम की गहरी ज़मीं में 
धँस जाना चाहती हूँ 
मैं 
समा जाना चाहती हूँ 
पानी की तरह 
इसकी रग रग में !
और 
हवा की तरह 
इसके  रोम रोम में 
बस जाना चाहती हूँ,
सदा के लिए !
और 
अंकित हो जाना 
चाहती हूँ,
किन्ही खोह कन्दराओं में 
और मंदिरो 
महलों में,मेहराबों में 
तराशीं हुई 
उन कलाकृतियों सी 
इस प्रेम के 
अनंत पटल पर 
और जग की स्मृतियों में 
सदा के लिए !


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