20 October 2018

मैं प्रेम हो जाना चाहती हूँ

कितनी ही 
खोह और कन्दराओं 
मंदिरों महलों में 
मानव प्रतिबिम्बों की 
प्रतिमूर्तियाँ की 
प्रेम की अनुभूति व्यक्त करती 
भाव भंगिमाएँ 
अंकित है चित्रित है !
और 
वहीं कुछ खोह 
कन्दराओं,
महलो के गलियारों में 
बुद्ध और महावीर
की प्रतिमाएँ 
और शायद तैलचित्र भी,
विलीन हैं ध्यान में,
अपने अनुयायियों के साथ,
उस परम ब्रह्म की 
प्राप्ति हेतु 
ईश्वर 
उस अनंत साधना 
में लीन 
सदा के लिए !

प्रेम साधना उपासना 
और आराधना 
फिर चाहे वो मीरा का था 
या राधा का 
गौतम या महावीर का !
ये सभी तो 
परम ज्ञान 
परम ब्रह्म के 
अनंत प्रेम 
को साधने का प्रयत्न 
करते करते 
विलीन हो गए 
उसी प्रेम में,
सदा के लिए !

हे प्रेम !
हे परमात्मा !
हे परम ईश्वर !
हे अनंत !
हे आदि !
मैं भी 
फूँक देना चाहती हूँ 
अपने अस्तित्व को !
अपने तन मन 
और आत्मा को 
विलीन कर देना चाहती हूँ -
इसी अनंत 
निर्विकार 
निराकार प्रेम में,
सदा के लिए !


मैं 
अमर बेल सी 
लिपट कर 
प्रेम के 
अस्तित्व-आसमां पे 
छा जाना चाहती हूँ 
और 
समा जाना चाहती हूँ 
इसकी गहरी जड़ो में !
प्रेम की गहरी ज़मीं में 
धँस जाना चाहती हूँ 
मैं 
समा जाना चाहती हूँ 
पानी की तरह 
इसकी रग रग में !
और 
हवा की तरह 
इसके  रोम रोम में 
बस जाना चाहती हूँ,
सदा के लिए !

मैं खोह कन्दराओं में 
और मंदिरो 
महलों में,मेहराबों में 
तराशीं हुई 
उन कलाकृतियों सी 
अंकित हो जाना 
चाहती हूँ 
इस प्रेम के 
अनंत पटल पर 
और जग की स्मृतियों में 
अंकित हो जाना चाहती हूँ 
सदा के लिए !


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