यादें शायद
फफूँद होती है
कि देखा है मैंने
यादों के फफूँद
कहीं भी
कभी भी उग आते है
वहाँ भी जहाँ
दफ़्न हो अपना प्रिय कोई
वहाँ भी जहाँ से
गुज़रा है वो
और वहाँ भी
जहाँ हमसाया था वो प्रिय
इन फफूँदो के
कई स्वरूप होते है
होते है
कूकुरमुत्ते से
सफ़ेद अंडों से
या फिर
ब्रेड में उग आए
काली हरी फफूँद !
कई आकार लिए होते है ये
बड़ी छोटी छतरी से
ये सफ़ेद अंडों से
कई दफे ये
कुकरमुत्ते सी यादें
जान भी लेती है !
और कितने दफे
जीवन दान भी !
ये उग आती है
विरह से सिले दरवाज़ों
खिड़कियों, पलंगो
घरों में जूतों में
कपड़ों में
हर जगह
हर कहीं !
ये अक्सर उग आती है
जहाँ होती है
विरानियों और तनहाइयों !
और फिर
एक बदबू
सड़ते रिश्तों की
कड़वी यादों की
ज़हरीले अहसासों की
फैलने लगती है
और वो घर
शहर रहगुज़र
हो जाता है
खंडहर
जर्र जर्र टूटा खंडहर !!
आते है तब
कुछ सैलानी ,टुरिस्ट
जो हमारे
वजूद के इन खंडहरों में
अपनी सेल्फ़ी ले
पोस्ट करते है
साथ
उन फफूँद बनी यादों का
मशरूम उगे खंडहरों का
जहाँ
शायद
कभी कोई ख़ूबसूरत
जहाँ बसा करता था !!
हाँ ... यादें
फफूँद सी ही तो होती है !!
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