एक गीत सुना करती थी बचपन में - बड़ा ही खूबसूरत सा !! गीत था - 'आधा है चन्द्रमा रात आधी, रह न जाय तेरी मेरी बात आधी'। फिल्म थी नवरंग - हालाँकि मैंने खुद फिल्म नहीं देखी मगर कहानी भी " आधी अधूरी" सी पता है। कुछ इसलिए कि गाने बेहद खूबसूरत थे और इसलिए भी नायिका थी 'संध्या' - यानि मैं ही थी वहां भी - कुछ आधी अधूरी सी - अरे भाई नाम तो था न .... हाहाहाहा !
खैर मुद्दे पे आया जाय - तो सार था शब्द - 'आधा -अधूरा' ! फिर चाहे वो चाँद था या या मिलन की रात थी या प्यार की बात - सब कुछ आधी अधूरी !! और वास्तव में कुछ भी तो सम्पूर्ण नहीं है - यहाँ तक कि ईश्वर भी नहीं ! फिर मैं कैसे सम्पूर्ण हो सकती हूँ !!!
एक ख्वाहिश है, एक गुज़ारिश है उनसे - हाँ, उन्ही से ! 'वो' - जो शायद यथार्थ है ही नहीं है !
मगर फिर भी ये दिल कहाँ मानता ही है यथार्थ को -वो तो बस सपने की, ख्वाबों की ख्यालों की दुनियों में खुद से बाते करता रहता है कि शायद कभी 'वो' सुन ले !!
अब 'वो' तो सुनने से रहे तो आप ही सुन लीजिये - वो पाठक, जो बिना गिला, शिकवा मुझे बरसो से पढ़ते आये है - सुनते आये है, आप तो सुनेंगे न ??
आधे से क़िस्से,आधी सी बातें
हलक में आके रुकीं थी जो साँसे
रुकीं सी साँसों को जी में भर दो
अधूरी सी बातों को तुम पूरा कर दो
ये चाँद देखो -है टूटा फूटा
बीती रात इसका, एक हिस्सा टूटा
तुम रात पूनम की बन के आओ
दिल के इस चाँद पूरा तुम कर दो
प से है पागल ध से है धड़कन
ग से गाए, दिल अधूरी सी सरगम
तुम साज़ कोई बनकर के आओ
अधूरी सी सरगम को पूरा तुम कर दो
है दफ़्न मुझ में ...तेरा ही साया
ज्यूँ रूह हूँ मैं, तुम मेरी काया
बाबा रुहानी तुम बनकर के आओ
मेरी देह और रूह को पूरा तुम धर लो
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