रेशम सी सुबहें
पश्मीना ये शामें
मख़मल सा
दिन भी हुआ ....
ये रातें ....
जुलाहा हुई है
ये आँखो के करघो पे
ख़्वाबों को बुनने लगी है
यूँ नज़रों को मींचे
यूँ साँसो को खींचे
बंद होंठों ने
कुछ है कहा ...
ये बातें ...
भी धागा हुई है
दिलों के चरखे पे
ख़्वाहिश कतरने लगी है
ये चाहत की तितली
छूकर के निकली
मन ये
पतंगा हुआ ....
ये साँसे
पतंगे हुई है
नज़रों के माँजे में
कहीं ये उलझने लगी है
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