11 April 2018

रातें जुलाहा हुई है

रेशम सी  सुबहें
पश्मीना ये शामें 
मख़मल सा
 दिन भी हुआ ....
ये रातें ....
जुलाहा हुई है 
ये आँखो के करघो पे 
ख़्वाबों को बुनने लगी है 

यूँ नज़रों को  मींचे 
यूँ साँसो को खींचे 
बंद होंठों  ने 
कुछ है कहा ...
ये बातें ...  
भी धागा हुई है 
दिलों  के चरखे पे 
ख़्वाहिश कतरने लगी है 

ये चाहत की तितली 
छूकर के निकली
मन ये 
पतंगा हुआ ....
ये साँसे
पतंगे  हुई है 
नज़रों के माँजे में 
कहीं ये उलझने लगी है 










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