21 December 2017

नया दौर

फ़ोन घनघना रहा था , देखा राकेश का था।

 - "सुनो , मैं बस ऑफिस से निकल रहा हूँ , तुमने सामान की पैकिंग कर ली है ? " -
- हाँ, बस हो गई है , और सुनो आते वक़्त दो किलो घारी  लेते हुए आना, मैंने गीता से वादा  किया था , उसे बहुत पसंद है ! ".
- ठीक है , मैं बस आठ बजे तक पहुँच जाऊंगा,बच्चो को खाना खिला देना , तुम तैयार रहना। साढ़े दस बजे तक  जायेंगे। 
ऑफिस से पुरे एक हफ्ते की छुट्टी ली थी मैंने , हालाँकि ईयर begining  था , काम बहुत था मगर बहुत request  के बाद मिल ही गई थी छुट्टी। भी मिलती तो लीव विथाउट पे कर के जाती - आखिर गीता के ड्रीम प्रोजेक्ट की ओपनिंग की सेरेमनी जो थी।
दोनों बच्चों को मम्मी पापा के पास छोड़े जा रही थी - वैसे भी ये पहली बार तो नहीं था कि मैं अकेले इस तरह कहीं जा रही थी.
राकेश भी वक़्त पे मुझे छोड़ने गए थे। ट्रैन - अवंतिका एक्सप्रेस  अपने नियत समय पे रात सवा ग्यारह   बजे प्लेटफार्म दो से रवाना होनी थी। सुबह सवा नौ बजे इंदौर   पहुंच जानी  थी   मेरे कुछ ज़रूरी साथी - किताबे - चश्मा और मोबाइल हमेशा की तरह मेरे साथ ही थे।
ट्रेन  में मुझे बिठा कर राकेश चले गए थे - बच्चे घर पे अकेले जो थे , खाना तो खिला कर ही आई थी।  ट्रेन अपने नियत समय पर चल पड़ी थी - बिस्तर बिठा कर मैं भी लेट गई थी - एकटक  शून्य में ताकती हुई और अनायास ही सोच कर मुस्कुरा उठी थी। 

गीता - अब के बार फुर्सत से मिलने जा रही थी।  बचपन की दोस्ती थी मगर अधेड़ अवस्था में शायद इत्मीनान से उन दिनों को याद करने का वक़्त मिला था - पुरे एक हफ्ते साथ रहूंगी अब के गीता के साथ !
रात तो घिर ही आई थी, बत्तियाँ  बंद हो गई थी कोच की मगर एक हलक मद्धम सा प्रकाश पसरा रहा। 
वो बचपन - वो मस्ती जैसे जब कुछ तैरता गया आँखों में - गीता  मेरी सहेली रही है बचपन कीरिश्तेदारी भी है हम दोनों के दरमियाँ - कम से कम हम दोनों के बचपन के   १० साल  तो आपस में गुथे हुए रहे है। और फिर सन  १९८३ में मैंने अपना शहर छोड़ा और फिर  कभी वहां लौटना नहीं हुआ।  दो तीन साल में कभी कभार आई भी तो गुल्लक में रखे  छुट्टे पैसे की तरह वो छुट्टियां आनन् फानन में कब खतम हो जाती थीपता ही नहीं चलता था !  मगर वो दस साल बहुत अहम् रहे हम दोनों  के ज़िन्दगी के।

आमला  - ठीक मध्य प्रदेश के बीचो बीच में आता है।  बरसाली - आमला  से करीब २५ किलोमीटर की  दूरी  पे सतपुड़ा में बसा एक छोटा सा गाँव,- बस वही पर एक पत्थर गड़ा है जिसे अविभाजित भारत का केंद्र बिंदु माना  जाता था - कहते है टीपू सुल्तान ने सर्वे करवाया  था तब  ये आदिवासी इलाका है - गोंड और कोरकू जातियाँ रहती थी तब वहां - मुमकिन है अब भी रहती हो।  
आमला छोटा सा क़स्बा है   कहते है ब्रिटीशर्स  के ज़माने में    ammunition land  हुआ करता था आमला इस वजह से नाम पड़ा आमला ! और मैंने तो बचपन से कुछ और ही सुन रखा था - चूँकि सतपुड़ा के घने जंगल है वहां और खूब आँवला मिलता है तो इस वजह से नाम पड़ा आँवला  जिसका अपभ्रंश हुआ आमला ! खैरशहर का नाम कितना मायने रखता है कौन जाने मगर वो जगह बहुत  मायने रखती है मेरे लिए आज भी । ।   रेलवे जंक्शन भी था हमारा शहर (? ) नहीं क़स्बा   ! मगर अब नहीं रहा।
दो हिस्सों में बटाँ  हुआ है आमला ! हर शहर की तरह मेरे आमला  के दो हिस्से हैं - आमला  - बोड़खी !  बोड़खी मतलब - एयर फाॅर्स बेस -लेबर कॉलोनी
बोड़खी और आमला  के बीच वो हेलिपैड। .... वो  भी  अब एयर फाॅर्स कॉलोनी में शिफ्ट हो गया  ...... दोनों को अलग करती  एक रेलवे लाइन और उसके  पास एक आरा मशीन  ..... वहीँ भरा करता था शनिचर बाजार।
करीब चारपांच  किलोमीटर का फासला रहा होगा मेरे घर   (जो  लेबर कॉलोनी में था)और उस शनिचर बाजार के बीच में।
 बाजार क्या था - हाट थी हाट ! क्या नहीं मिलता था वहां ??
अनाज , मसालासब्जी ,मिठाईखोआफलकपडे , इस्नो , पाउडरलाली , क्लिप्स , कंघीकखाई, - सब कुछ ही तो मिलता था वहां - आज कल का hypermall कह ले तो ठीक रहेगा 
हम बहनो को इस हाट में आने की इजाजत नहीं थी - घर से बहुत दूर जो था मगर कभी कभी मम्मी सब्जी लेने आती थी तो हमें साथ ले आती थी।
वो गोंड और कोरकू औरते - काली - चमकती हुई काली औरते – लुगड़ा (१६ हाथ की साड़ी )   पहने हुए  सर पे   लकड़ी के गट्ठर लाद  कर लाती थी।   मुझे अब तक याद है - पूरा बदनचेहरा , गुदा होता था उनका - गले में हसियाँ , पैर में तोड़ा , कमर में कमरबंधहाथ में मोटे मोटे कड़े - ये सभी गहने विशुद्ध चाँदी  के। ये औरतें जंगल से आती थी - शहदलकड़ी बेच के पुरे हफ्ते का सामान ले जाती थी।   इन्हे मेकअप के सामान में बड़ी दिलचस्पी हुआ करती थी.
उस बाजार में मेरे  दादादादीचाचाचाचीबुआ,  फूफा , और जाने कौन कौन रिश्तेदार , कोई  कोई दूकान लगाते थे।  फिर चाहे वो अनाज की हो , या सूखी मिर्च की या कुछ   और की 
पौं  बारह हो जाते थे हम बहनो के - और साथ में सहेलियाँ  - हमउम्र थी - हम तीन  खास सहेलियाँ  थी। और cousins भी। 
गीता , शब्बो  और मैं  - खूब पटती थी हम  तीनों की।  शब्बो के पापा कुछ ख़ास नहीं करते थे - घर कैसे चलता था - आज तक समझ  नहीं आया - ज़रूरी भी नहीं था समझना उन दिनों।  मगर हाँ - गीता के पिता जी - मेरे फूफा जी  की हैसियत हम तीनो से बहुत अच्छी थी। उनकी ऐन चौक बाजार के कपड़े की दूकान थी -   बी - बियावान स्टोर भी था,  खेत थे , ट्रेक्टर थे, ढेरों नौकर   चाकर !कुल मिला कर बहुत संभ्रांत घरानो में गिनती थी फूफा जी  की।
छुट्टियों में अक्सर रहना होता था गीता या शब्बो के घर।  बड़ा मज़ा आता था - इतना बड़ा घर - हमेशा मूंगफलीतिल  या आटे  के लड्डू बोरो में भरे पड़े रहते थे। ये लड्डू गन्ने के रस से गुड़ बनाये जाने की प्रक्रिया में निकले फूल से बने होते थे - इतने कड़क कि दाँत टूट जाय मगर मैं और शब्बो तो बस टूट ही पड़ते थे इन लड्डुओं पे।
गीता तीन बहनो और दो भाइयों में सबसे बड़ी थी -और सबसे सुन्दर भी।  गोरा रंग - दुबली पतली , तीखे नैन नख्श , और अदा  तो थी ही उसमे - क्यूंकि वो इस बात से खूब वाकिफ थी की वह बहुत खूबसूरत थी.
गीता के बड़े पापा भी उसी घर में रहते थे - उनकी दो बेटियाँ और दो बेटे।  कुल मिला कर गीता घर की बहुत लाड़ली  बेटी थी और नकचढ़ी  भी।
क़स्बे  में स्कूल तो था - सरकारी - छोटा सा - कुल आठवीं  तक -  उन दिनों लड़कियां इससे ज्यादा पढ़ती भी कहाँ थी ?
शब्बो और मैं बराबर के थे - गीता हम दोनों से साल छोटी।   मुझे फायदा था की मैं अंग्रेजी medium  स्कूल में पढ़ती थी - KG  से अंग्रेजी का ज्ञान था - इस वजह से धाक ज़माने में बड़ा मज़ा आता था।
कई बार यूँ भी होता कि  शब्बो और गीता मुझे अपने साथ स्कूल ले जाती - उन दिनों अपना टाट का बोरा खुद ले जाना होता था बैठने के लिए   छोटी सी एक तंग गली में स्कूल था लड़कियों का - सामने मैदान और फिर सामने लड़को का स्कूल था।
स्कूल  में क्या ख़ाक पढ़ती थी लड़कियाँ – 
बस खीं -खीं  कर के हँसती  रहती।  गली मोहल्लो के लड़को की नाना प्रकार की बातें करती - जिनमे मुझे कोई दिलचस्पी नहीं होती थी। हाँ , इंतज़ार रहता था आधी छुट्टी और छुट्टी का जब बाहर  वो इमलीअचार , आइस कैंडी बेचने वाले खड़े रहते थे ,   गीता  खरीद के खिलाती थी , उसको जेब खर्च के पैसे जो मिलते थे।
बस पापा की पोस्टिंग  गई थी उन्ही दिनों और मैं तो   बहुत दूर चली गई थी अब वहां से।   अब तो साल में सिर्फ एक बार सर्दियों की छुटियों में आना होता था।  और ऐसे में भी कहाँ शब्बो या गीता के घर रहने मिलता था - पापा तो उठाकर तीन महीने के लिए यहाँ के स्कूल में डाल देते थे।
बस फिर तो फासले बढ़ते गए थे क्यूंकि वक़्त भी तो बहुत गुज़र चुका  था इस दरमियान। पच्चीस तीस साल !!
 मम्मी पापा से कुछ कुछ कहानियों के रूप में सुनने को   मिलता रहा दशकों तक।  इस दौरान मेरी अपनी पढाई - नौकरी , शादी , बच्चे   कितना कुछ हो हो चुका था मेरे साथ भी , शब्बो और गीता के साथ भी  !
पापा ने बताया था कि  शब्बो की शादी जबलपुर के एक गाँव के पास हुई है।  इन दिनों शब्बो सरपंच है अपने गाँव की ! गाँव का तो पता नहीं , शब्बो और उसके परिवार ने बहुत तरक्की  कर ली है इतने दशकों में   मगर जब भी गीता के  बारे  पूछा तो हर बार बात टाल  गए , समय  भी भूलती चली गई - मेरी अपनी व्यस्तताएँ भी तो थी  
बस , सन २०१५  में  भाई की शादी तय हुई  -हम सब में सबसे छोटा है  भाई।  चूँकि घर की आखरी शादी थी - मेरे  generation की   आखरी शादी  तो बहुत सारे रिश्तेदार भी आये थे शादी में - आमला ,चिचोली, पाढर,   सारणी, खण्डारा  से, इन्ही गांवो में ही तो फैला था मेरा अस्तित्व , मेरी जड़ें 
शब्बो भी आई और  गीता भी !
हम तीनो एक साथ आज १९८३ के बाद २०१५ में मिल रही थी !! ३२ सालो के बाद - बचपन में मिले थे और अब सीधे प्रौढ़ अवस्था  में मिल रहे थे !
शब्बो तो हर लिहाज़ से एक प्रौढ़ महिला सरपंच लग रही थीआखिर नानी दादी भी तो बन चुकी थी , एक ठसक था   लिहाज़ में।
मैं भी  ४३  साल की प्रौढ़ा ही हूँ मगर , शायद यहाँ का रहन सहन , नौकरी करने के फलस्वरूप,  उम्र कोशिश करके भी बहुत चेहरे को ज़र्द नहीं कर  पाई।  फिर शादी  भी तो बहुत देर से की मैंने तो  बच्चे भी छोटे छोटे ही है मेरे !!
 .... मगर गीता ??
गीता को देखकरबस  देखती ही रह गई थी मैं!   उम्र को बड़ी खूबसूरती से  मात दिया था उसने।  वही गोरा रंगतीखे नैन नख्श , दुबली पतली छरहरी कमनीय काया और खूबसूरत नेट की पीली अमेरिकन डायमंड जड़ी हुई साडी में लिपटी गीता बेहद खूबसूरत और कम उम्र लग रही थी 
गीता शादी के ऐन दिन ही आई थी।  चूँकि भाई की शादी थी एतैव  मेरी खुद की बहुत व्यस्तता थीज्यादा बात नहीं हो पाई गीता से !
और फिर दूसरे दिन तो चली भी गई थी गीता !!
शादी निपट गई - रिश्तेदार चले गए - मगर गीता मेरे दिमाग से नहीं गई। 
सारे रिश्तेदार जा चुके थे , बस हम भाई बहनें  और मम्मी पापा ही रह गए थे।  बस एक  रात खाना खाने के बाद मैंने ज़िद की मम्मी से - आप क्यूँ टालते रहे हो गीता के बारे में बात करना - वो तो इंदौर की जानी मानी बिल्डर  है।  
अजीब लग रहा है सुनने  में - उस कसबे  से , जहाँ लड़कियां आठवीं से ज्यादा नहीं पढ़ती हो - वहां की गीता आज इंदौर के जाने माने बिल्डर में गिनी जाती थी !! जहाँ लड़कियों को पढ़ने कीनौकरी की इजाजत नहीं थी - वहां की गीता आज इंदौर शहर की एक रईस   बिल्डर थी !!
मम्मी ने लम्बी साँस  लेते हुए कहा –“ ठीक है तू कह रही है तो बताती हूँ .  बहुत सारी कहानियाँ  सुनी थी मैंने गीता के बारे में  - तरह तरह की कहानियाँ - जिनके सच  उन कहानियों के जितने विविध थे।“
- “तुझे तो पता है -तेरे फूफा  पैसे वाले थे और गीता बहुत सुन्दर !” 
हाँ sssss  तो ? - मेरी उत्सुकता अपने चरम सीमा पे थी 
उन पाँचो बहनो को पढ़ाने मास्टर आया करते थे घर पे।  बड़ी शरारती थी पांचो बहने।  कभी डरा दे मास्टर को ,  कभी बहाना बना के भगा दे ,कभी टूटी कुसी पे बिठा दे !   मास्टर  क्या , कॉलेज में पढ़ने वाले लौंडे होते थे जो पढ़ाते  थे उन्हें मगर  अदब से मास्टर जी बुलाया जाता था !!
-बस ऐसे ही एक मास्टर से उलझने लगे थे गीता के मन के धागे।  चुलबुली , गोरी , सुन्दर होशियार , धनी  - सब कुछ था उसमें किसी को भी प्रेम के पाश में बांधने के लिए। और सबसे बड़ी चीज़ थी - वो उम्र - नादानियों की उम्र!
-मैंने तो यहाँ तक सुना था की उसने दो बार गर्भपात करवाया था - सच अब तक नहीं जानती - कभी हिम्मत भी नहीं हुई किसी से पूछने की ?  
मम्मी बताती रही  और सब कुछ जैसे चलचित्र की तरह चल रहा था मेरे दिमाग में  .....
-जब परिवार में पता चला इन दोनों के बारे में तो उस मास्टर को  चौक में धोखे से बुला कर इतना मारा , इतना मारा कि  -मरणासन हो गया - पुलिस आई !
 गीता के दादाबड़े पापा , पापा , तेरे   अपने चाचा -सब को जेल हो गई।  
 मगर फिर सुना  कि  वो मास्टर फरार हो गयावही मास्टर  जिसके लिए गीता ने पुरे समाज से  पंगा  लिया  !!
कायर कहीं का !!! –मेरे मुँह  से निकल गया 
मम्मी अपनी रौ में बोलती रही -
 दादा ने खेत के मकान पे रहना शुरू कर दिया था - घर   आना ही बंद कर दिया   भाईबहनकाका ,काकी  (गीता के पापा  , मम्मी )  सभी का निकलना दूभर हो गया था। 
-जब तू फर्स्ट ईयर में थी - तुझे याद है तेरे पापा और मैं आमला  गए थे - गीता  की शादी की थी तेरी बुआ ने जैसे तैसे।
-फोटो भी तो दिखाया था तुम सब बहन भाई को  - अच्छा  लड़का था - दहेज वैगेरह कुछ नहीं लिया था उसने  तू बोली भी थी  - “दिख तो अच्छे ही रहे थे जीजा जी “  सुना था , घर से भी संपन्न थे वो लोग !  
-इतनी पुरानी  बात कहाँ  याद रहती है मम्मी-- एक तुम ही हो -बिलकुल नहीं भूलती  - मैं बोली .
-फिर ,पहली रात को गीता ने  मास्टर जी से अपने प्यार की बात अपने पति को बता दी!! 
 समाज में बड़ा हंगामा हुआ।  खूब  थू थू हुई जाती बिरादरी में  – उसके ससुराल वालो ने उसे वापस तेरी बुआ के यहाँ लाकर छोड़ दिया। ऐसा नहीं था कि  गीता  के पति ने उसे वापस ले जाने की कोशिश  नहीं की थी - की थी मगर  गीता नहीं गई!!
-मोहल्ले में नाक कट गई थी तेरे बुआ  के परिवार की,
 घर से निकलना छोड़ दिया था  तेरे  फूफा ने.  दुकान बंद हो गई ! दोनो लड़के बेलाइन हो गये अब भी याद है मुझे कि तेरे फूफा   ने तेरी बुआ  को तब प्लेन में बिठाय था जब तुम सब   शायद प्लेन  स्पेलिंग भी बोलना नहीं जानते थे। वही बुआ अब फटी हुई साड़ी  पहनने लगी थी। 
इस सब के बीच के बीच वह अपने फैसले पर चट्टान सी 
अडिग खड़ी  रही।  और उसी दौरान उसने भोपाल से चार साल का BA         B Ed का कोर्स कर लिया था।  
फिर कुछ साल बाद गीता को उससे  साल बड़े राज के   घर बिठा दिया गया  ( अपने  यहाँ इसे दूसरी शादी नहीं कहते - घर बिठाना कहते है). यहाँ आखिर गीता की ज़िन्दगी में थोड़ी देर के लिए सही -ठहराव आया था।  बेटी हो गई थी उसकी - चुलबुली बुलाया करते थे उसे।   !
मगर गीता के घर सब ठीक नहीं हुआ था अब तक – और यहाँ आमला मे उसके दादा गुज़र गए  ; घर का बटवारा हो गया  , आर्थिक परिस्थिति और बिगड़ गई  - उसके मम्मी पापा  मन से  टूट से  गए   दोनों बेटे भी बे - लाइन हो गए जो आज तक लाइन पे नहीं  पाए  है। 
खैर , एक दिन जाने क्या हुआ - वजह क्या थी नहीं मालूम ,मगर तेरे राज जीजा   को हार्ट अटैक आया और वो चल बसे !
और फिर एक और कश्मकश भरी ज़िन्दगी - गीता को   इन ससुराल वालो ने भी  निकाल  दिया - कुलच्छणी  कुलटा जनमजली, कमीनी, और पता नही क्या क्या कहा था उन्होंने।  
बोले थे  - पहली शादी खा गई , माँ बाप की खुशियाँ  खा गई और   अब पति को खा गई। "

  -“कैसे झेला होगा उसने ,क्या गुज़री होगी उसके मन पे” , मैं सोच के  सिहर उठी एक कंपकंपी सी दौड़ गई मेरे शरीर मे . जाने कहाँ से इतनी ताक़त हिम्मत लाइ थी अपने साथ - सब टूट गए वो नहीं टूटी थी  .....
मम्मी कहती रही
-फिर सुनने में आया था वो इंदौर जा बस गई थी - पहले   टीचर रही - स्कूल रास नहीं आया - बिल्डर के ऑफिस में   बतौर  असिस्टेंट रही और अब खुद  ही बिल्डर है  !
मम्मी बोली  -“बस इतना ही मालूम है मुझेपर लोग अब भी बहुत अनाप शनाप बोलते है लोग उसके बारे मे . अच्छा छोड़ ये सब, जाने देसो जा बहुत रात हो गई !!!
वाक़ई रात भी बहुत हो गईमैं सोने चली गई फिर .

फिर वही वापस दिनचर्या मे व्यस्त हो गये हम सब लेकिन गीता मेरे दिमाग़ मे कहीं घर बना कर रह सी गई थी.
और अब इतने सालों  के बाद शादी में मैंने देखा था - बस  थोड़ी  सी बात हुई थी हम दोनों में। 
भूल नहीं पा  रही थी मैं गीता को , गाहे बेगाहे वो मेरे जेहन में चली आती है हालाँकिऐसे तो गीता का फ़ोन नंबर बरसो से फ़ोन में रहा है - मगर कभी बात हुई नहीं -  उसने कोशिश की और  मैंने !
और उस दिन ऐसे ही  फ़ोन लगाया था उसे देर रात को .....  आज जैसे मुझे उसकी कहानी सुननी थी मैंने .....
मैंने पूछा था उसे - गीता ,तू  whatapp  पे है क्या ?
वह बोली थी मुझे - इन सब बातों  के लिए मेरे पास   बिलकुल वक़्त नहीं है मेरे पाससुबह से शाम - sites , मज़दूर ,  और govt  ऑफिस के चक्कर , कहाँ टाइम होता है मेरे पास  !!
थोड़ी इधर उधर की बाते हुई , मैंने कुरेदा उसे - कैसे कब हो गया ये सब , मुझे तो पता ही नहीं चला। 
गीता बोली - एक वो वक़्त था और आज ये वक़्त है - सब कुछ बदल गया - ये गीता अब वो गीता नहीं रही !!
 तुझे पता है आज की तारिख़  में मेरे पास २ करोड़ का bunglow  और ५० लाख से ज्यादा  के   गहने है , कॅश है !! 
बोलती रही वो अपनी  रौं  में -  तुझे पता है - ये वही घर वाले है - जो मुझे जली कटी सुनाते थे , मेरी बेटी को दूध नहीं देते थेढंग का खाना कपडा नहीं देते थे , आज मैंने उन्हें वापस   ज़मीन से आसमान पे लेकर खड़ा कर दिया ! -तुझे पता है बेला , मैंने पूरे घर को फिर से खड़ा किया , आज मेरी मम्मी के घर में जो भी एक एक सामान है , मैंने खरीद के दिया है !
पता है मैंने अपनी बहनो की शादी करने का खर्चा दिया   पूरा !! आज हर दो साल में मैं उन्हें नेपालसिक्किम या ऐसी   जगह घूमने ले जाती हूँ।!!
बोलती रही गीता - सब कुछ - एक एक किस्सा , एक एक   दर्द बयां करती रही वो। 
......   मैं सिर्फ receiver  कान पे लगाए सुनती रही - बस आंख से अविरल आँसू  बहते रहे -  कितना दर्द सहा था उसने , कितनी अंगारो पे चली थी वो !!  आज मैं और गीता   जैसे फिर बचपन में लौट गए थे    - जब हम एक दूसरे के कंधे पे सर रख रो लेते थे।   दोनों की आँखे नम  थी और गले भर्राये हुए 
भरी आवाज़ में मैंने पूछा था  - चुलबुली कैसी है , गीता ?
वो बोली  - पता है बेला , मैंने उसे सिखा  रखा है क़ि  मुझे  सबके सामने मौसी कहना है , मम्मी नहीं!!! यहाँ इंदौर मैं  हर कोई ये समझता है कि  मैं single  हूँ , शादीशुदा नहीं हूँ और और चुलबुली मेरी बहन की बेटी है !!  
हालाँकि  ये लॉजिक  मुझे तब समझ आया  अब , खैर  उसकी ज़िन्दगी थी - तकलीफे उसने जी थी झेली थी -वो ज्यादा सक्षम थी अपने फैसले लेने में और उन्हें सही या गलत ठहराने  में।
मेरे खयालो की तन्द्रा टूटी ....
मैंने कहा - गीता hats  off  to you ! मेरा तो समझ आता है - मेरे पापा मम्मी मुझे उस माहौल से  यहाँ ले आये - खूब पढ़ाया लिखाया और आज मैं इस   मुकाम में हूँ , पर तू ने तो अपने रस्ते  अपनी मंज़िले  खुद चुनी , कितना मुश्किल सफर  तय  किया  है  - मैं  तुझे सलाम करती हूँ यार ! 
-सुन चुलबुली आई है , मुझे बुला  रही है  और  फिर  सुबह  मेयर  के साथ मीटिंग भी है , फ़ोन रखती हूँ  . और हाँ , मेरा एक मेगा प्रॉजेक्ट शुरू हुआ है  . उसकी ओपनिंग 15 जनवरी  2016 को रखी है - तुझे आना होगा - मैं नहीं जानती कैसे पर तू आएगी बस .
मैने कहा - हाँ गीता तेरे दुख मे तो मैं साथ नही  पाई  मैं, लेकिन तेरी खुशी के इस पल मे मैं तेरे साथ रहूंगी  !
और इस दौरान  कहाँ गुज़र गया छह महीने का वो वक़्त पता ही चला
और बस एक हफ्ते पहले गीता का फोन आया था - सुन बेला ! तेरा पता लिखा, कार्ड भेज रही हूँ - तुझे आना है - मैं तेरी राह देख रही हूँ  .....
आँख कब लग गई पता ही नही चला .... गीता मुझे झींझोड़ कर उठा रही थी - बेला उठ इंदौर आ गया है   !!
लिपट गई थी मैं गीता से  !
 हाँ ,इंदौर आ गया था - गीता की ज़िन्दगी में एक नया दौर आ गया था  !!!



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