29 March 2017

धूप, चाँद और शाम

सुनो चाँद, 
कितने बरस हुए 
तुम उफ़क पर  नहीं आए!
कितना कुछ बिखर गया  
दिन भी अब बिफर गया !
सुनो, बहुत कुछ 
गुज़र गया है  तुम्हारे पीछे ।


 सूरज  ने अब दालान  में 
एक दीवार खींच दी है ।
रोशनी ने जैसे कि 
हम पे आँखें मींच दी है ।
एक अरसा सा गया है, 
धूप को यहाँ  आने से 
रोक दिया गया है।  

हाँ, दीवार में कुछ सुराख़ है 
कहीं  अंगार,कहीं  राख है ।
धूप भी कभी कभी 
सूरज की नज़र चुराकर 
झाँक जाती है ।
देख लूँ मैं अगर तो 
जैसे झेंप जाती है |

नज़रों से  हाल पूछती है, 
कई सवाल पूछती है, 
क्या कहूँ उससे ?
बताऊँ कौन से क़िस्से? 

पूछती है धूप, 
अमावस की रातें 
लम्बी होने क्यूँ लगी है ?
क्यों चाँद  टूटा  सा  है
रात रूठने  क्यूँ लगी है ? 

सुराख़ो से अक्सर
धूप को रोते देखा है 
 हथेलियों में तलाशती 
तुम्हारी ही रेखा है !


ये कहो  कि 
ये  शाम का माजरा क्या है ?
ढूंढती है तुम्हे दरबदर, 
 आखिर उसका दायरा क्या है ?

  शाम, इस ओसरे से 
उस ओसरे तक 
चहलक़दमी करती है
तुम ही कहो 
क्या तुम पे वो मरती है ?

अब ये धूप क्या कम थी 
जो शाम का भी 
रोग लिया तुमने ?
मगर रुको 
सिर्फ तुम धूप के थे
 न मन में ? 

अबके ये 
 जो शाम आएगी,
कह दूँगी उससे,
-सुनो शाम 
चाँद का तुमसे 
कोई सरोकार नहीं है !
उसे तुमसे 
कोई प्यार नहीं है !

तुम ही कहो चाँद 
मैंने ठीक किया न ?? 

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