सुनो चाँद,
कितने बरस हुए
तुम उफ़क पर नहीं आए!
कितना कुछ बिखर गया
दिन भी अब बिफर गया !
सुनो, बहुत कुछ
गुज़र गया है तुम्हारे पीछे ।
सूरज ने अब दालान में
एक दीवार खींच दी है ।
रोशनी ने जैसे कि
हम पे आँखें मींच दी है ।
एक अरसा सा गया है,
धूप को यहाँ आने से
रोक दिया गया है।
हाँ, दीवार में कुछ सुराख़ है
कहीं अंगार,कहीं राख है ।
धूप भी कभी कभी
सूरज की नज़र चुराकर
झाँक जाती है ।
देख लूँ मैं अगर तो
जैसे झेंप जाती है |
नज़रों से हाल पूछती है,
कई सवाल पूछती है,
क्या कहूँ उससे ?
बताऊँ कौन से क़िस्से?
पूछती है धूप,
अमावस की रातें
लम्बी होने क्यूँ लगी है ?
क्यों चाँद टूटा सा है
रात रूठने क्यूँ लगी है ?
सुराख़ो से अक्सर
धूप को रोते देखा है
हथेलियों में तलाशती
तुम्हारी ही रेखा है !
ये कहो कि
ये शाम का माजरा क्या है ?
ढूंढती है तुम्हे दरबदर,
आखिर उसका दायरा क्या है ?
शाम, इस ओसरे से
उस ओसरे तक
चहलक़दमी करती है
तुम ही कहो
क्या तुम पे वो मरती है ?
अब ये धूप क्या कम थी
जो शाम का भी
रोग लिया तुमने ?
मगर रुको
सिर्फ तुम धूप के थे
न मन में ?
अबके ये
जो शाम आएगी,
कह दूँगी उससे,
-सुनो शाम
चाँद का तुमसे
कोई सरोकार नहीं है !
उसे तुमसे
कोई प्यार नहीं है !
तुम ही कहो चाँद
मैंने ठीक किया न ??
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