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मैंने सूरज को गोली मार दी
बड़ी गर्मी थी उसमे, उतार दी !
अरे, अभी तो आया ही मार्च था
क्यों जलाया गरमी का टोर्च था ?
सूरज को था कितना attitude !!!
मैं बोली -चल, परे हट मुए dude !
निकाली बंदूक़ उस पे तान दी
बस लूँगी प्राण उसके, ठान ली।
ये मुए बादल बीच में आ गए
गोली सीने पे, अपने खा गए!
चलाई गोली थी - धाँय-धाँय
बिखरे बादल सारे दाएँ बाएँ।
तितर बितर फिर धूप हो गई
कहीं पे छांव ख़ूब हो गई !
दिन भी कुछ नासाज़ हो गया
और शाम का आग़ाज़ हो गया !
लगे पत्ते पत्तों को चूमने
सारे शज़र लगे नशे में झूमने !
फूलो को भी पसीना आ गया
ख़ुमार दिमाग़ पे जैसे छा गया !
ग़श खाकर अम्बर भी गिर गया
होना था ये कि दिसम्बर था गया!
अब तो सबके जलने की बारी आ गई
Dermi कूल, पिचकारी आ गई !
जले हम सब , फिर जलते ही रह गए
और बस अपने हाथ मलते ही रह गए
सोचा, काहे गर्मी की आरती उतार दी ?
कहाँ मैंने सूरज के भेजे में गोली मार दी !!
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