हमारी दस साल की बेटी .. नही ... नहीं .. दस पूरे कहाँ हुए अभी !
हाँ , उससे पूछे तो वो कहेगी - "मैं बड़ी हो गई हूँ - दस साल की हूँ !"
उससे उलझना यानि अपनी जान सांसत में डालना है ! आफत की पुड़िया है। सीधे तो बैठना ही नहीं उसे। इतनी उम्र में बाते क्या बनाती है - पूछिये मत !
अभी पिछले गुरुवार एक सहेली मिल गई हमारी - इतेफाक़न उसकी और हमारी हृतिका - सहेलियाँ निकली। उस बच्ची ने पूछा -" आंटी इसका नाम हृतिका है या प्रिया ?"
हमने हैरानी से उस बच्ची से कहा - " प्रिया ? नहीं तो !"
- "पर आंटी , इसने तो ऐसा ही कहा !"
अब घूरने के अलावा कुछ कर नहीं सकते थे हम । सबके सामने घुड़कना -सही भी नहीं था। वो है हमारी आँखों वाली धमकी समझ गई - बस लिपट गई हमसे -और हँसते हुए बोली - मम्मा, मैं तो मस्ती कर रही थी !
समझ नहीं आता हमें क्या करूँ उसका !
ऐसे तो बड़ी हो गई है - मगर जहाँ कोई काम सौंपा, बस कहेगी - " पर मम्मा मैं तो छोटी हूँ अभी ! "
कुल मिला कर अपनी convenience से छोटी या बड़ी हो लेती है हमारी हृतिका !
खैर मुद्दे की बात पर आया जाय। हृतिका - हमारी लाडली नटखट हृतिका - बस उसे सीखना सब है मगर जहाँ बरी आई की म्हणत किया जाय - कट लेगी - फिर चाहे वो पढाई हो , drawing क्लास , music हो या डांस - क्लासिकल या contemprorary !
हम दोनों मियाँ बीवी इतने तंग है इसकी इस आदत से पूछो मत !
एट्टीट्यूड तो बहन जी में कूट कूट कर भरा है - अब कुछ दिनों पहले वार्षिक महोत्सव था स्कूल में।
गाने की शौक़ीन है हमारी तरह - ठीक ठाक गा भी लेती है - हमारी ही तरह ! लिखने की भी शौक़ीन है - बिलकुल हमारी ही तरह !
dance भी ठीक ठाक कर लेती है - नहीं, हमारी तरह नहीं ! इस मुआमले में हम - "नाच न जाने आंगन टेढ़ा" वाली कहावत ज्यादा चरितार्थ करते हैं । गर उछलकूद को डांस कहे तो थोड़ा सा डान्सिया लेते है हम । ....
तो जनाब -हमारी नन्ही आटिट्यूड जान एक राजस्थानी डांस में थी - केन्द्रीय विद्यलाय में पढ़ती है - fourth class में - केंद्रीय विद्यालय के प्रोग्राम्स बड़ी विविधता लिए होते है अपने आप में।
बहरहाल स्कूल में प्रैक्टिस जारी थी, बस ऐसे ही एक दिन हमारी बिटिया रानी से एक step गलत पड़ गया - और टीचर कुछ कहे उससे पहले तो ये डांस से बाहर थी।
क्लास के बाहर दूसरी मैडम से सामना हो गया - वो फैशन शो करवा रही थी - सामने से उन्होंने हमारी नन्ही शहजादी को बुला कर फैशन शो में शामिल कर लिया।
रात हुई घर पर catwalk भी हुआ - बाकायदा हमारा हाथ पकड़कर - जैसा की उसका पार्टनर ने करना था - हमसे भी कैटवाक करवाया गया - हलाकि इस बात पे चर्चा फिर कभी करेंगे की हमारा catwalk - catwalk न होकर एक मद -मस्त हाथी के चाल सा था - खैर - जंगल में मोर नाचा - किसने देखा - हमें भी किसी ने catwalk - हमें राहत रही इस बात की।
सुबह हुई - "स्कूल चले हम " वाली तर्ज पर बेटा और बेटी दोनों स्कूल के लिए रवाना हुए।
शाम को हमारे घर आने पर मिले दोनों - तो बेटे से खबर मिली - फैशन शो भी तज दिया गया है !
सर भिन्नाया - पूछने पर पता चला की catwalk करते वक़्त ज़रा पैर मुड़ गया था - और बगल वाली लड़की से टकरा गई थी - और इससे पहले की टीचर निकले - हमारी सुकन्या खुद ही प्रोग्राम से निकल ली।
कई बारगी सोचते है - ऐसा तो कुछ ख़ास नहीं खाया था हमने इसके पैदा होने के पहले - तो फिर ये ऐसी क्योंकर हुई ?
मंथन किया ... चिंतन किया कई दिनों तक ...... अपनी माँ से इस सन्दर्भ में बात की कि भई -इन मोहतरमा को इतना गुस्सा काहे आता है ?
हमारी माँ ने हमारे इतिहास पे प्रकाश डालते हुए कहा -" तेरी बेटी है - तेरी ही जैसी है। तू भी ऐसी ही थी बचपन में "
" क्या बात कर रही हो मम्मी ? " हम तो बहुत शांत थी बचपन में " हमने कहा।
"काहे की शांत ? हर बात पे मोर्चा लेकर खड़ी हो जाती थी - फिर वो स्कूल हो या घर !! तूने मार भी खाई है इस चक्कर में बहुत बार " मम्मी ने मौके पे चौक दे मारा।
और जैसे हम फिर इतिहास में डोरेमोन की टाइम मशीन में बैठे उस दिन पहुच गए जब स्कूल से हमें दांतीवाड़ा , गुजरात - केंद्रीय विद्यालय BSF भेज गया था करीब तीस एक लड़के लड़ियों के साथ। दांतीवाड़ा में BSF हुआ करता है वहां zonal meet में खो- खो में अपनी टीम के साथ स्कूल को रिप्रेजेंट करने गए थे।
दो लेडी टीचर थी साथ - बहुत अच्छे से वाकिफ थे दोनों से - बड़ी strict मैडम थी - दोनों की दोनों!
प्रकाश मैडम और दूसरी मैडम का नाम भूल गए - पंजाबी थी वो ! अब हमारे पापा स्कूल के प्रिंसिपल ठहरे इसलिए हम तो वैसे भी लोगो की आँखों में या तो तारा या किरीकिरी बन के रहा करते थे उन दिनों ! आज क्या स्टेटस है - नहीं जानते - फ़र्क़ भी नहीं पड़ता - तब बहुत पड़ता था।
खैर, पहला दिन - हम खेले -सिलेक्शन तो काहे का होना था - पहली बार तो प्रोफेशनली खेलने आये थे। पहला दिन गुज़रा - शाम हुई -अब हॉस्टल और प्ले ग्राउंड काफी दूर थे। दस एक लडकिया रही होंगी हम सब - सब छोटी हम - ७-१० वाली - दीदी कोई भी - ११- १२ वाली नहीं थी हमारे साथ ।
सोचा - हॉस्टल चलते है - हमारा राउंड तो ख़त्म हो चूका था वैसे भी । सब लड़कियों ने हामी भरी -शायद इसलिए कि भई प्रिंसिपल की बेटी साथ है - टीचर भी न डाँटेगी।
हम सब लोगो की टीम - जिसको lead हम कर रहे थे -BSF की एक बस - जिसमे जवान भी सवार थे - लद लिए और थोड़ी देर में अपने हॉस्टल पे - जहाँ रहने की व्यवस्था थी - पहुच गए।
फिर शाम हुई - दोनों मैडम आई हमारे रूम पर - भड़की हुई थी - पूछा - बिना परमिशन के तुम सब यहाँ कैसे आई ? तुम सबको कुछ हो जाता तो किसीकी ज़िम्मेदारी होती?? . वैगेरह वगैरह ..
हम दसो लड़कियां सर झुका कर डाँट सुन रही थी ! चुपचाप !
सभी दीदीया और बाकी लड़कियाँ हमारे इर्द गिर्द घेरा बनाकर खड़ी थी - मज़े ले रही थी !
मैडम दहाड़ी - "किसका आईडिया था बस में जाने का ?"
सब के सर हमारी ओर घूम गए और फिर तो ये झन्नाटेदार थप्पड़ पड़ा हमारे गाल पर!
सन्न रह गए हम और बाकि सभी लड़कियाँ। शायद एक और लड़की को थप्पड़ पड़ा था हमारे अलावा, हमें वो याद भी नहीं । हमारा तो खून खौल गया !
गलत बर्दाश्त करना सीखा था नहीं कभी - हमेशा आवाज़ उठाई थी !
चलो हम मान लेते है की गलती हमारी थी - मगर बाकी लड़कियाँ सब भी उतनी ही गलत थी जितने हम - फिर हमें सजा और उन्हें मज़ा !!!
हमें बरदाश्त नहीं था - हमने अपना ये खौलता हुआ लावा एक कविता के रूप में उतारा - जो बहुत फेमस हो गई। और तो और हम सब बच्चो को DA (डेली allownace ) १०/- दस रुपये मिला अगले दिन - हमने अपना गुस्सा उतारा उस नोट पर फाड़ दी नोट और पूछने पर कहा कि "हम खैरात नहीं लेंगे ! जुल्म नहीं सहेंगे !! "-etc etc - ये मिसरे हमारी कविता में भी दिखाई दिए फिर । हमारा गुस्सा, हमारी कविता, हमर नोट फाड़ना - बहुत चर्चा का विषय रहा - बच्चो में भी teachers में भी - शायद इसलिए भी कि हम प्रिंसिपल की बेटी थे - जो उन्हें टकुआ जैसा सीधा रखते थे।
शायद हम कहना भूल गए है - ये घटना १९८७ की है और उन दिनों हम दसवीं में पढ़ा करते थे। हमारे गुस्से का आलम इतना ज्यादा था -कि एक बार हमारी मैडम - शायद गुरमीत कौर मैडम उनका नाम था) ने पापा को सपरिवार खाने पर बुलाया था - हमारा गुस्सा इतना कि हमने उनके घर खाना नहीं खाया तो नहीं ही खाया ! वो कहती रह गई - सब ने कहा - मम्मी पापा - अंकल , मैडम ने - मगर हम टस से मस नहीं हुए !
यहाँ पर ये कहना ज़रूरी हो गया है कि आज जब खुद टीचर हुए है, माँ हुए है तो अहसास होता है की उन्होंने जो किया था ठीक किया था - जानती हूँ इस वक़्त हमारा सॉरी कहना कोई मायने नहीं रखता, फिर भी - सॉरी मैडम !
आज मम्मी के कहने पर आज ये बात जब जेहन में उभर कर आई फिर अहसास हुआ - उस बिचारि हमारी बिटिया का क्या दोष है -ये तो उसे उसकी अपनी माँ से ही मिला है।
कुल मिला कर हम आईने के सामने खड़े है आज और असमंजस में है - अपने बीते कल को अपने आज में देख कर ! बिलकुल "To be or not to be " की स्थिति सी है
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