"फटीचर ज़िन्दगी, फटीचर ख्याल , कुछ बेतुके से, अटपटे सवाल
कभी ये ज़िन्दगी हुई कुची-कुची सी तो हो गया देखो कोई बवाल"
बस यही सार है लेखन का ,अब ऐसा कहाँ हो पाता है की आप हमेशा अच्छा ही लिखे - खैर हम सिर्फ गिटिर पीटर करते है - इसे कायदे से लिखना ही नहीं कहते !
ख़ैर , जिसे जो समझना हो समझे - आलोचना करे -मगर माँ को तो अपने सब बच्चो से प्यार होता है - चाहे फिर वो गीत , कविता - जो हो - लूली लंगड़ी कानी कुब्जि ही क्यूँ न हो।
वैसे भी हमारी लिखी रचनाये कु - पोषण का शिकार है - कोशिश ज़ारी है -रोग पकड़ में आया तो है - खुराक भी शुरू की है - अब देखने की बात है - असर कब तक आएगा - ये न हो की असर होते होते - ये सब कुपोषित रचनायें यहीं दम तोड़ दे!
हम तो हिम्मत नहीं हारेंगे - इंतज़ार करेंगे - वो सुबह कभी तो आएगी - यकीनन आएगी !! तब तक यही सही - हाहाहाहाहाहा !!!
देते दस्तक
बैठे कबतक
अपनी क़िस्मत पे
रोते अब तक
सोचते हम
ज़िंदगी हुई जैसे
मुई कोई नौकरी
उठा के झाड़ू
दे यूँ मारी
मरे कुछ ग़म
कराहे ग़म
सोचते है
बैठ ग़ुमसुम
अजब ये छोकरी
उठा के दारू
घूँट मारी
हुए बेदम
होश था कम
डोलते है
उठाकर हम
ख़ुशी की टोकरी
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