6 November 2016

उजालो के दरीचे खुल रहे

उजालो के दरीचे खुल रहे है 
दिए जो बुझ गए थे जल गए है। 

कमी ऐसी नहीं थी कोई उनमें 
मगर फिर भी किसी को खल गए है। 

पुराणी शाख है बूढ़ा शज़र है 
खिले है  फूल जो वो सब  नए है। 

थी कैसी प्यास  जो आँखों  में ठहरी
जहाँ देखो वहाँ दरिया बहे है। 

तुझे आवाज़ दी तुझको पुकारा 
तिरी यादों के घर खंडहर किये है। 

यहाँ आया है क्या सैलाब कोई 
ये किसके कैसे है घर जो ढहे है 

PS: ये मिसरा "उजालो के दरीचे खुल रहे " सुबीर जी - बहुत जाने माने शायर और गुरूजी - जो ग़ज़ल सिखाते भी है - उनका दिया हुआ है और पहली पहल formal  कोशिश  थी ग़ज़ल लिखने की।  मैं #सुबीरजी जी तहे दिल से आभारी हूँ - जहाँ से मैं सीखती रहूंगी ग़ज़ल लिखना - आज कल और सदैव। 

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