29 October 2016

फिर भी क्यों है तेरी चाह सी ....

ये सफ़र नहीं मेरा ,
ये तो घर नहीं मेरा
न मुसाफ़िर मेरे  ,
न ये मंज़िल मेरी राह की .....
फिर भी चल रही हूँ मैं ,
 गिर संभल रही हूँ मैं
है  न कोई   यहाँ ,
बस है मैं और मेरी आवारगी ।

बिखरे रंग कई
 तेरे संग कई
 मन  में बजने लगे थे
जलतरंग कई
यूँ न कंकर उठा
और न हलचल मचा
दिल में उठने लगी  आह सी

तू तो कोई नहीं
तू कहीं भी नहीं
फिर भी ख़्वाबो में  तू
और ख्याल में  तू
तू जो लौट गया
फिर न वापस मुड़ा
फिर भी  क्यों है   तेरी चाह सी





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