कभी-कभी युहीं खुद से उलझना और फिर न सुलझना अच्छा लगता है .... जाने क्यूँ ?
कितनी गिरहे है ..... बस गूँथ रखा है खुद को , जाने कैसी और कितनी पहेलियों में ....
एक सुलझती है तो दूसरी खुद ब खुद उलझ जाती है
कई बार तो जैसे ज़िन्दगी की सिलाई उधड़ भी जाती है ... पैबंद भी खूब लगाए है हमने .... और कई बार तो एक ही जगह पर चार बार गलती से सिल भी दिया .... हाहाहाहाहा .......
अब ज़िन्दगी के रूखेपन को आप किसी कंडीशनर से कम नहीं कर सकते और न ही कोई कंघी ही होती है ज़िन्दगी के लिए जिससे आप सारी गूँथ हटा दे, बिलकुल बालों की तरह ...
लेकिन फिर भी उन के ख़यालो में उलझे रहना .... . जाने क्यों अच्छा मालूम होता है !!
अब, जब से उलझे है ..... जी करता है - ये ख्वाहिशें , ये साँसे, ये ख्याल, ये सपने, हमेशा बस उनमे ही उलझ कर रह जाए ..... क्या जाने क्यों ......
कैसे कहे क़ि तुम्हें पाकर
कैसे कहे क़ि तुम्हें पाकर
हम ख़ुद ही ख़ुद से जा उलझें
है मंज़िले ये, क़ि राहें है
जाने भेद कैसे ये सुलझे ?
ख़्वाहिश के ड्योढ़ी पे बैठे है
कुछ सपने थे, जो मेरे अपने
आँखों की पलकों को छूकर
क्यूँ, राह ये और कोई निकले ?
गीले बालों में बंधे क्यूँ
साँसों के कितने ही बंधन ....
क्यूँ हाथ में न आये, पल
जूड़े की पिन में जो है जकड़े !
ख़्वाहिश के ड्योढ़ी पे बैठे है
कुछ सपने थे, जो मेरे अपने
आँखों की पलकों को छूकर
क्यूँ, राह ये और कोई निकले ?
गीले बालों में बंधे क्यूँ
साँसों के कितने ही बंधन ....
क्यूँ हाथ में न आये, पल
जूड़े की पिन में जो है जकड़े !
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