कितने दिन हुए न कुछ लिखा और पढ़ना तो लगभग बंद ही है आज कल।
बड़ी कशमकश से गुज़र रही है .... समझ ही नहीं पा रही इरा की ये सब क्या और क्यूँ हो रहा है ?आज ही तो सोच रही थी कि काश समय के पर होते .. फुर्ररर से उड़ जाता।
जीना ही नहीं है इस वक़्त में उसे ...... बहुत उतार चढ़ाव से गुज़री है इरा मगर ये तो बर्दाश्त के बाहर हो चुका है।
अपने आप से लड़ के थक गई है इरा - काश फिल्मो की नायिका की तरह उसकी भी याददश्त गुम हो जाती - हमेशा के लिए। किसी को जानना नहीं चाहती - पहचानना नहीं चाहती - कब तक भागे कोई कहाँ तक भागे। काश ... वो कह पाती
कब, कहाँ, कैसे
ढूंढोगे मुझको तुम
कि खुद ही खुद में,
हो गई मैं ग़ुम
ढूंढोगे मुझको तुम
कि खुद ही खुद में,
हो गई मैं ग़ुम
...... हर बार वही सब कुछ आकर खड़ा हो जाता है सामने .
बेसाख्ता ही, अनायास ही, कोई उसके होने को कटघरे में खड़ा कर देता है ?
क्यूँ उसकी भरी हुई आँखे, खाली सी है ?
क्यूँ उसका वजूद अधूरा है ?
क्यूँ बर्दाश्त करती है उन शोर करती हुई ख़ामोशीयों को ?
कभी किसी के लिए न रुकने वाली इरा, क्यूँ रुकी है उन सवालों के लिए जिनके जवाब वो जानती है ?
मैं तो न जाने तुमसे क्याक्या कहती रही
ये सोचकर क़ि तुम कहोगे -अब मुझे तू सुन
अब नहीं पढ़ सकती तेरी खामोशियाँ मैं
बहुत हुआ क़ि राह लफ़्ज़ों की चुन थक गई है इरा - बहुत थक गई है !!
वो जानती है वो महज एक परछाई के पीछे भाग रही है .......
तोड़ती हूँ रोज़ ख्वाहिशों के धागों को मैं
तू बन जुलाहा तस्वीर ख़्वाबो की तो बुन
कुछ भी न आएगा उसके हाथ - वो फिर रह जाएगी खाली हाथ -और वो परछाईया फिर उसके अस्तित्व को स्याह कर देंगी - निगल जाएँगी
...... और इरा ... इरा - फिर से एक और मौत मर जाएगी!
ज़िन्दगी, तेरी ज़िंदा इन्ही परछाईयां को
कब , कहाँ, क्यूँ लग गया मृत्यु का घुन !!
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