30 July 2016

ख्वाहिश और ज़रूरत

उस शाम  फिर  खूब  रोई  थी इरा। 
 बरसो हो गए मगर  ये हँसता,  खिलखिलाता चेहरा कब अचानक रो पड़े खुद इरा को नहीं पता। 
ज़रूरतों और ख्वाहिशो के बीच जम के कहासुनी हुई थी आज फिर । 
इरा  की ज़रूरते  और ख्वाहिशे के बीच  की कहासुनी !

नहीं, कोई पारिवारिक मसला नहीं था ! 

शादी को १५ साल बीत चुके है। बहुत प्यार करता है रागेश उसे।  पलकों पर बिठा कर रखता है उसे। 
दो बच्चे भी है  - एक बेटा - अनुज और बेटी - तनीषा ! वो भी बड़े हो गए है अब तो!
कितने बरस बीत चुके हैं  साथ निबाह करते हुए लेकिन इरा ने आज भी रागेश को अपनाया नहीं। 

वजह ?
लम्बी कहानी है - अटपटी सी, उलझी सी, बिना कोई मसले की , बिना मसाले की !

इरा अलग ही थी - बचपन से - बहुत सारे भाई बहनो में पली - थोड़े बहुत अभावो में पली  विद्रोही किस्म की थी शुरू ही से !
पीरियड्स में कहा गया कि मंदिर नहीं जाना है - तो इरा तो जाएगी ही !
जब मंदिर में दर्शन करने जाता परिवार, तब मंदिर में पाँव भी नहीं रखेगी इरा !
अख्खड़ - अड़ियल, ज़िद्दी ,गुस्सैल - जाने क्या क्या सुनाने को मिलता उसे। 
आम तौर पर कुछ नहीं कहती मगर फिर जैसे कब, किस पर जाने कहाँ किस वक़्त ज्वालामुखी फूट  पड़े!

ये शायद  आवरण थे उसके - जो उसने लोगो से बचने के लिए ओढ़ रखे थे।  

घर में सब से नाटी , चपटी नाक - नेपाली फीचर्स वाली, सब बहनो में सबसे साधारण दिखने वाली। 
एक-दो ही तो खूबी थी उसमे - वो गाती बड़ा सुरीला थी , वाचाल थी (यह कहाँ खूबी हुई भला! ) और हाँ, पढ़ने में सभी भाई बहनो में सबसे तेज़ थी. 
बस इन्ही बातो ने इतनी हीन  भावना से ग्रस्त कर दिया इतना कि आज भी उस अहसास को भुला नहीं पाती।  आज भी कोई खूबसूरत महिला गुज़रे  सामने से, तो उसे अफ़सोस होता -  "काश,  थोड़ी लंबाई ज्यादा होती - नैन नक्श तीखे होते।, दाँत बहार न होते वगैरह वगैरह  ....."
सही कहते है लोग - औरत को तो ब्रह्मा जी भी न समझ पाए  .....

कुल मिला के बात ये कि इरा  बहुत ही साधारण व्यक्तित्व वाली, देसी किस्म की लड़की थी न जिसे फैशन  का 'फ' पता था, न करने की समझ और रही सही कसर उसके अक्खड़पन ने पूरी कर दी जब वो जान कर ढंग से खुद को carry नहीं करती.

सब समझते - "अच्छी तो दिखती हो! - प्यारी सी तो हो! बस ढंग के कपडे पहनो , रहो। " मगर वो तो विद्रोही थी ही - "जिसे पसंद करना है - वो ऐसे ही पसंद करे मुझे -वर्ण नहीं शादी करनी मुझे!"

पढाई लिखाई में अच्छी थी शुरू से -शायद इसलिए पापा की लाडली थी। लिखने लगी थी थोड़ा थोड़ा - IIIrd  standard  में शायद अपनी पहली कविता लिखी थी। 
शब्दो  तो हमेशा से   ही लगाव था - जो भी कवि  हो, लेखक हो, गायक हो , उससे बहुत जल्दी जुड़ से जाते थे उसके भावना तंतु- जो आज भी बदस्तूर जारी है। 

अकेले रहने वालो में से थी - ज्यादा पटती  नहीं थी किसी  से - स्वाभाव के कारण ।  या दब  जाती सामने वाले के व्यक्तित्व से या फिर हावी हो जाती। 

लडकियाँ कम ही दोस्त होती थी उसकी , उसे पसंद ही नहीं आती थी  ... उसे लड़को सा रहना , दबंग होना , इंडिपेंडेंट होने बड़ा पसंद था। 
वजह ?
-क्योंकि उन्हें बंदिशो में नहीं रखा जाता , उन्हें ख़ास ट्रीटमेंट मिलता जो लड़की होने पर उसे नहीं मिलता था !

खैर, ऐसे से में बचपन बीता  और पापा नौकरी  की ही ऐसी थी कि  ट्रांसफर होते रहते थे। अबके वो लोग  ट्रांसफर होकर इस नए शहर आये थे - मेरठ । 

 वो भी उसकी  ही क्लास में था - नाम भी भला सा था - विनय। 
नाम का विनय था वो बस - क्लास का टॉपर था,no doubt,  मगर उसे इरा से खासी चिढ़ थी 
इरा प्रिंसिपल की बेटी जो थी।  बस, इरा को बात-बात पे रुलाना, कहना  - "तुम प्रिंसिपल की बेटी हुई तो क्या हुआ - ऐसे नहीं चलेगा , वैसे नहीं चलेगा !" और भी जाने क्या क्या !

हे राम ! बस यही  पुराण चलता।  

 टीचर जब देखते विनय को ऐसे कहते हुए   तो डस्टर से दे दनादन पीटे !
और वो ढीठ चिल्लाता जाता - " हाँ, प्रिंसिपल की बेटी है न वो - उसको तो कुछ कहोगे नहीं - मारो मुझे ही मारो" और मार खाता  रहता ! अजीब शख्श था वो भी!

 यह देखकर  इरा और  रोती। 
मन ही मन बहुत पसंद करती थी उसे शायद, जाने क्या भा  गया था उसमे - उसका पागलपन शायद !
इरा की विनय के प्रति दीवानगी  सब को दिखती थी,  बस शायद विनय ही आँखे मूंदे बैठा था।  
शायद उस नज़र से कभी न देखा हो, न सोचा हो या पसंद ही नहीं थी उसे - जैसा वह समय समय पर सबको बताता रहता था। 

लेकिन कुछ और भी था - दूसरा पहलू । 

विनय भी लिखता था - दोनों अपना अपना लिखा share करते एक दूसरे से।  उसे इरा की आवाज़ बहुत पसंद थी. अकसर वो कहता कि  इरा गाने गाये उसकी फरमाइश पर और इरा ख़ुशी ख़ुशी गाती। 

इरा तो स्कूल कैंपस में ही रहती थी - वहीँ घर था उसका।  

लेकिन विनय टाउनशिप में रहता था।  स्कूल बस से आता-जाता  था। 
बस जैसे छुट्टी हुई और विनय, इरा की नोटबुक लेकर गायब हो जाता।  और इरा पागलो की तरह उसे स्कूल भर में ढूंढती रहती ।  
और फिर जैसे ही स्कूल बस जाने को हो - पता नहीं कहाँ  से प्रकट हो जाता और हँसते हुए इरा की किताबे/ नोटबुक सौपकर बस में बैठकर फुर्र  .... 

इरा समझ नहीं पाती - क्या समझे इसे ? ये प्यार था कुछ और था - इरा के हिसाब से तो प्यार ही था  ... 

खैर, 10th  में थी वो जब  दोनों में झगड़ा हो गया किसी बात पे - इरा ने बात नहीं महीनो तक !
बोर्ड exams  के पहले दिन विनय आया - best of luck  कहने !
बस इरा सोचती रही -शायद हाँ, प्यार ही तो है। 
बस  इसी  कशमकश में उलझी रही तीन साल और तब तक तो स्कूल ख़त्म हो गया। 
इस दौरान दोनों में कितने झगडे हुए - कुछ सुलझे - कुछ उलझे - आज भी कभी समझ नहीं आया वो एक शख्स  उसे।

खैर, कॉलेज में admissions  हो गए  सब के - शहर बदल गए दोनों के। 


इरा विनय से जुडी रहना चाहती थी। चाहती थी आखिर उसे - दीवानो की तरह!!! तय हुआ - चिठ्ठी लिखेंगे दोनों एक दूसरे को 


इरा के पास कभी  इतने पैसे नहीं होते थे कि  वो inland  में सील बंद करके लिखती। 

अल्हड, चुलबुली, मुहफट ,बेबाक सब कुछ तो थी वो। 

अब सवाल आया कि  संबोधन क्या लिखा जाए - बड़ी जिद्दोजहद की! 

content तो तैयार था - दिल की सब बाते लिख डाली थी उस पोस्टकार्ड पर - मगर संबोधन पे अटक गई थी बात। 

हाँ , ये बात तो लिखनी ही रह गई - विनय को इरा के पापा बिलकुल भी पसंद नहीं करते थे। उनके मुताबिक वो एक बदतमीज़ और बिगड़ैल औलाद था अपने माँ बाप की  !

इरा पापा से बहुत जुड़ी हुई  थी - कभी बता नहीं पाई  उन्हें कि  उसे विनय पसंद है। 

अब ये भी तो था की पापा  ने कहा था कि "अगर तुमने लव मैरिज या ऐसा कुछ किया तो हम तुम्हे मार डालेंगे". 

मज़ेदार बात ये है कि  इरा को छोड़ सब भाई  बहनो ने लव मैरिज ही  तो की  बाद में !

खैर, जो हो ,बहुत  कश्मकश में  थी इर  - दो पाटो में पिसती इरा। 

और उसे मालूम भी न था कि विनय उसे चाहता है भी या नहीं (यह बात तो आज भी पता नहीं है उसे! )

खैर ... बात चिट्ठी की थी  ... जाने क्या सोच कर उसने लिख दिया - "भाई"

आज भी ये बात काँटे की तरह चुभती है (रो देती है इरा अब भी - उसने ऐसा क्यूँ लिखा था - क्या सोच कर लिखा था !)

और फिर जो हुआ वह अप्रत्याशित था - टूट गई इरा हमेशा के लिए - ऐसे बिखरी - कभी सिमट ही नहीं पाई ( शायद इसलिए खुद में झांकने से डरती है आज भी )!



नमिता दी (इरा की हॉस्टल की रूममेट ) ने उसे दोपहर उसे एक inland  लाकर दिया -"तुम्हारी चिट्ठी आई है, इरा!"


"ओह, विनय की चिठ्ठी!" - ख़ुशी से उछल पड़ी इरा। 

कितनी excited थी वो   ... 
लेकिन ये क्या - 
एक एक शब्द जैसे लावा उगल रहा था - नफरत का,  घृणा का !
तुम  **** हो, तुम **** हो  और भी जाने क्या क्या !

धम्म से बैठ गई वो बिस्तर पर !

हक्की बक्की  - सदमे में ! ये तो नहीं सोचा था उसने!

एक एक शब्द जैसे उसके खून में उतरने लगा - इतनी नफरत - इतनी घृणा - याद भी नहीं ऐसा क्या लिखा था उस पोस्टकार्ड में अब तो लेकिन उस सदमे से आज भी नहीं उबर पाई। 

इरा को juvenile epilepsy थी ही - इस बात ने उसे aggravate  कर दिया। 
पता नहीं कितनी बार हॉस्टल में fits  आये होंगे उसे!

वो एक साल कब कहाँ  ख़त्म हुआ पता नहीं - इरा ने कॉलेज बदल दिया,  जगह बदल ली - दूर भाग जाना चाहती थी इस सब से। 

लेकिन खुद से भाग कर कहाँ जाती  ..... वो चार साल इंजीनियरिंग  की पढाई का दौर !
हैरत होती है इरा को अब भी - वो पास कैसे हुई ?
इन चार सालो में उसने पागलो की तरह रोने के अलावा और तो कुछ किया ही नहीं  - पढाई तो बिलकुल नहीं !
कोशिश कि  किसी और के प्रति आकर्षित होती - मगर वो बाते उसे जीने कहाँ देते थी 


वक़्त गुज़रा जैसे तैसे और फिर जब वो फाइनल ईयर में आई - उसके रूम में वो लड़की आई - रूचि नाम था उसका - उसके अपने स्कूल से।  रूचि को  विनय अपनी सगी बहन सा मानता था.

रूचि को  खत लिखता था  विनय।  रूचि ने जब बताया इरा को - मर सी गई वो एक बार को - रूचि से नफरत सी हुई उसे।  
जब रूचि नहीं होती तो -तो इरा चुपके से विनय के रूचि को लिखे हुए खत को निकाल के पढ़ती - नहीं, उसके नाम का कभी , कहीं कोई ज़िक्र नहीं होता। 

इरा ने कभी भी किसी से नफरत न तब की थी, न ही आज होती है उसे -स्वभाव नहीं है ऐसा उसका। 

खैर .. हैरत की बात तो तब हुई जब मारे जलन के इरा ने रूचि को अपने कमरे से रूम निकाल   दिया सोचकर कि  न रहेगा बांस न बजेगी बासुंरी ! 
इरा की इस हरकत के कारण  उसके पुरे ग्रुप ने उससे बात करनी बंद कर दी - इरा टस  से मस नहीं हुई - उसे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता था - लोग पहले भी दोस्त नहीं थे उसके अब भी न होंगे - कहाँ  फ़र्क़ पड़ता था उसे !

आखरी viva  था उसका - उसके बाद उसे वो कॉलेज - वो शहर छोड़ देना था। 

 कॉलेज में रूचि आई उसके पास, बोली - "दीदी, विनय भैया ने आपके के लिए ये लेटर भेजा है।"

इरा का तो कलेजा  जैसे उसके हलक से उछल कर गले में आ गया - कुछ कह नहीं पाई - देखती रह गई रूचि को - रुचि चली गई। 


इरा धड़कते दिल से वो लेटर लेकर वाशरूम की और भागी। 

एक ही सांस मे पढ़ डाला सब कुछ। 

अब तो कुछ याद नहीं - क्या लिखा था - धुंधला सा भी नहीं - लेकिन हाँ, ये याद है की वो बहुत बहुत बहुत रोइ थी उस दिन - उस रात - न जाने और  कितने दिन और कितनी रात.

 कोई हिसाब नहीं है उसकी रातो का या रीते दिनों  का।  लेकिन आज भी वह सब जब याद आता है तो दिल भर आता है उसका दिल। बस, रो देती है आँखे आज भी। 
फिर आगे यूँ हुआ कि  एक दरार तो  ही पड़ चुकी थी रिश्तो में  । 

वो घाव शब्द  के इतने गहरे थे - बहुत गहरे उतर गए - चीर डाला अंदर तक।  ऐसा गिराया उन शब्दो में अपनी ही नज़र में कि  वो  ज़िन्दगी भर खुद को अपनी नज़र में चाहकर भी उठ नहीं पाई । मर गई - ज़िंदा रही मगर मर गई !


आज भी रिसते  है वो ज़ख्म - कोई आँखे पढ़ना जानता हो तो शायद देख सके उन घावों को। 

अब तो ये आलम है की किसी भी शब्द का असर नहीं होता  ... कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता किसी के कुछ भी कहने का - सुनती सब है मगर मानसिक तौर पर बहरी हो गई  इरा !

कॉलेज -  उस आखरी  लिए घर वापस आ गई ! हमेशा अपने साथ लिए घूमती रही वो लेटर।  सोचती रही - जवाब दे  या न दे  ?नहीं दिया - कोई जवाब नहीं दिया इरा ने  !
प्यार किया था  इरा ने विनय से ,लेकिन कोई इस तरह से कोई आपके चरित्र पर ऊँगली उठा दे और वो भी वो इंसान जो आपका खुद हो भगवन हो ! 
आप कैसे जी सकते थे नार्मल होकर - कैसे सामना करती उसका ?
शुक्र है भगवन का - आज तीस बरस होने को आये कभी मिले नहीं - भगवन करे कभी मिले भी न !

इस दौरान इरा के पापा का फिर ट्रांसफर हो गया था - 

इरा की भी पढाई ख़त्म हो गई थी - नौकरी की तलाश थी उसे भी। 
याद है इरा को  - ट्रेन पुणे से बदलनी थी उसे और पापा  को अपने नए गन्तव्य तक पहुचने के लिए 
प्लेटफार्म पर लगी बेच पर  बैठी इरा ने वो खत निकाला, आखरी बार पढ़ा,  फिर छोटे छोटे टुकड़े किये और बेंच के नीचे फेक दिए। 

बाकी  खत तो पहले ही फाड़ चुकी थी इरा , आखरी खत भी फाड़  दिया - कभी नहीं मिली उससे - विनय से !

लेकिन ख्वाहिश कभी नहीं  मरी !पलती रही। 

गुज़रते वक़्त ने बहुत सफ़े  भर दिए ज़िन्दगी के। ज़रूरी, गैर ज़रूरी - जानी, अनजानी यादे, बाते - न जाने कितना कबाड़ भर दिया  इस छोटे से दिल में, मगर   वो बाते भी रही !


तभी तो जब रागेश से मँगनी  हो चुकी थी, बहुत कोशिश की थी उसे ढूंढने की।  नहीं मिला विनय उसे। 

फिर शादी के कितने सालो बाद फेसबुक पर दिखा - कितना बदल गया था अमेरिका जा कर !

वो इरा का विनय तो नहीं था -बिलकुल नहीं था -

थोड़ी बातें भी हुई दोनों में - लेकिन जहाँ इरा की पूरी ज़िन्दगी का सार था - विनय ने दो शब्द में कह कर ख़त्म कर दिया - "ओह - वो सब  बचपना  था - it  was all so trivial" 

यही शब्द थे उसके !
किसी का trivial - किसीकी पूरी ज़िन्दगी !

फिर पलट कर  गई नहीं  इरा उस रास्ते - कभी नहीं !


लेकिन वो तो अधूरी थी - अधूरी ही रह गई। 


बहुत चेहरे मिले फिर आगे सफर में - कई मिलते जुलते से थे - किसी  की कोई बात मेल खाती  विनय से ,  किसी की  और कोई! 


बस ताउम्र  खोजती रह गई विनय को, उसके अक्स को , उसकी शख्शियत को , कलम को , आवाज़ को , चश्मे को, आँखों को  ..... और इस दौरान उसने कभी भी रागेश को नहीं देखा। 


इरा एक अच्छी  बेटी है , बहन है , पत्नी है , माँ है,  employee , सखी है।  सब कुछ तो अच्छा है, सारे  फ़र्ज़ पूरे  कर तो  रही है बखूबी। 


मगर इरा- अच्छी इरा नहीं है - विनय ने यही तो कहा था !


ज़रूरते कहती है - परिवार सर्वोपरि है है और ख्वाहिश कहती है - प्यार सर्वोपरि है। 

 अब भी विनय को तलाशती है इरा  हर किसी में - पता नहीं, कहाँ, क्यूँ और किसलिए !

हर रोज़ खुद से लड़ती है - जीते या हारे - घाटे में तो इरा ही है। 

गरम कॉफ़ी के मग सिसकियों को कुछ देर  रोक तो लेते है  - शायद  अगले कुछ और दिन तक ही  !
जाने फिर कब फिर ये जंग शुरू होगी - फिर सैलाब आएगा - 
हर बार फिर रह जाती है  एक हारी थकी  हुई इरा - ख्वाहिश और ज़रूरत में सामंजस्य बिठाती हुई इरा !
हर बार अपने आप को सांत्वना देती है  - 

मैं सोचती थी अक्सर
शायद कोई मजबूरी होगी
जो तू मुझे दूर चला गया।
मगर मैं हमेशा से
गलत थी!!!!!!

आज भी तेरे सामने
होकर गुजरूँ 
तुम तो शायद यूँ मुह फेर लोगे
जैसे कभी जानते ही नहीं थे !!

 आते है याद तो याद आता है 
तेरा वो तिरस्कार ,
वो घृणा -
आज भी जब
 तेरे शब्द याद आते है 
लगता है जैसे पिघला शीशा
डाला हो  तुमने मेरे कानो में !

मैं आज भी असमंजस में हूँ
क्या ऐसे भी प्यार होता है ?
कोई इतनी शिद्दत से
क्या नफरत भी करता है ???

ऐसा क्यूँ होता है
हम किसी पे मरते है
वो किसी और का ही होता है ??




  

  

   





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