23 June 2016

एक जुर्म हुआ अधूरा सा

देख के दिल मे हूंक  उठी
मच उठी  कोई  हलचल सी

 है हँसी कुछ दबी  हुई सी
खनक है उसमे पायल सी

एक जुर्म हुआ अधूरा सा 
एक सज़ा मिली मुककममल सी 

वो हिज्र की ठंडी रातों मे 
यादे हुई जैसे कंबल सी 

खुशियाँ जैसे हो किश्त किश्त
कतारें गम की  मुसलसल सी 

ख्वाहिशों की एक होड़ लगी 
ज़िंदगी गोया एक दंगल सी

हवा को खुद का होश कहाँ
फिरती है वो एक पागल सी

जो था अपना सब होम किया 
ख़ुश्बू  फैलाई  सन्दल सी

'साँझ सवेरे',  फलक पे उसकी
हस्ती आवारा बादल सी 

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