ज़मीं पैरों तले पसरी है लेकिन सर पे अम्बर है
बहुत है हौसला उड़ने का मगर अपने कहाँ पर है
वो जो बस्ती के कोने पर कोई पतली गली सी है
बहुत ही दूर है लेकिन वहाँ पर चाँद का घर है
ठिठक कर धूप ठहरी है कहीं पेड़ों के सायों में
उजालों के कहीं बिस्तर कहीं छावों की चादर है
पहाड़ों से चलें आए जो ये पानी के झरने है
समुन्दर को तरसते की वो झरनो का मंज़र है
बिछड़ जातें कभी जो लोग वापस क्यूँ नहीं आते
कभी भीगीं हुई आँखें कभी यादों के ख़ंजर है
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