चाय पीते पीते
अक्सर मैं
ठिठक जाती हूँ,
और देखती हूँ
गुज़रे हुए
वक़्त के आईने में
तस्वीर तेरी
सोचती हूँ
क्यूँ तू फिर
मुझे नज़र आया है??
सोचती हूँ -
आज भी, मैं
एक लम्हे सी
कबसे ठहरी हूँ वहीँ .....
और तू
किसी आबोशार सा
कहीं बहुत दूर
निकल आया है।
कई पगडण्डी से
होकर गुज़री है
आवाज़ें मेरी .....
मगर
देखा है क़ि
तेरी आवाज़ों के
शहर में अनजान
कोई रहनुमा सा
नज़र आया है।
किसी खत सी
हर रोज़ जाती है
तुम तक
मेरी यादें ......
और हर रोज़
बैरंग लौट
आती है यादें
उस आशियाँ से,
जिसे तुमने -मैंने
बनाया था।
बनाया था।
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