रोज़ बनके यूँ टूटा है मेरा, ये मकां ,
और हैरत है तुमको क़ि मैं, मैं न रही ?
दरिया था, तू लहरों सा आया औ' बह गया,
ज़र्रा थी मिटटी का ,कभी साहिल, मैं न रही।
तू लम्हा था, आया औ' जाने कब गुज़र गया,
उस पल में, उस लम्हे में, शामिल, मैं न रही।
क्या मिरी हस्ती, तेरे दरबार में, ऐ मालिक!
जब हस्ती किसी, शाहे -ऐ आलम की न रही ?
मुर्दो के परिवेश में, पली-बढ़ी थी मैं
इंसान थी , पर इंसां के काबिल, मैं न रही।
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