घर का कोई ...बिदेस गया रे ..
लल्ला किसी का ...किसी का सखा रे...
दे गया नहीं कोई ...वो अपना पता रे ...
बोझिल हो गई ... ये काली रातें ..
किससे अपने ...ग़म ये बाँटे ...
मीलों तक ... फैली ...काली स्याही ..
ख़ालीपन ने ... बाहें फैलाई ...
खेत की फ़सले.. पकने लगी रे..
पुरवैया भी रंग ..बदलने लगी रे ..
आँगन की ये ...दहलीज़ पुकारें ..
पलने भी तो ..तेरी राह निहारे ...
उम्र भी दस्तक... देने लगी है
अम्मा की झुर्री भी बढ़ने लगी है ..
बाबा भी झुक झुक के चलने लगे है ..
छोटू भी ...दरवज्जा छूने लगा है ..
आजा अब तो ... समय हो चला रे
बिदेश कभी न... देश किसी हुआ रे
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