1 December 2015

फिर उठा है धुआँ ..... फिर लगी आग सी .....



रिस रहे घाव भी ....
जल रहे दाग़ भी । 
फिर  उठा है धुआँ  .....
फिर लगी आग सी।  

बेक़रारी सुलगती है..
गीली लकड़ी सी.... जलती है
आहों का दिल से... उठता धुआँ   
ये धुआँ ...मेरी साँसों में शामिल हुआ ... 
जाने क्या थी ख़ता ... 
क्यूँ मिली ये सज़ा ?? 
सोचतीं हूँ यही ... 
हर लम्हा ...हर दफ़ा ...

छोड़ आई थी- बातों को...
तेरे झूठे से ...वादों को ..
यादें हुई   जैसे -अंधा कुँआ ....
ज़िंदगी बुझ गई.......  
और दिल जल गया ..... 
ज़िंदगी बन गई है  ..... मेरी एक जुआ 
मैं कहाँ यूँ चली 
मुझको कुछ न पता .. 
क्यूँ मैं ज़िंदा यूँ हूँ 
खामखां बेवज़ा....

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