3 October 2015

ज़िन्दगी रेत सी फिसल पड़ी



थी  ख्वाहिशें   चुलबुली,
  न जाने क्यूँ   मचल पड़ी। 
 हसरतों  को  थामकर  ,   
 बेसबब   निकल पड़ी।। 

तेरे ही साये थे , 
आँखो मे जो छाए थे । 
मोम  थी,  सांसो से 
 बेसबब  पिघल पड़ी। 

बेघर  और आवारा सी, 
हो गई मैं  हवाओं सी, 
जाने कहाँ, क्या पता 
 बेसबब चल पड़ी। 

लहरों सी  गीली हूँ ,
अश्कों सी भीगी हूँ ,
ज़िन्दगी रेत सी हाथ सी 
 बेसबब फिसल पड़ी।  

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