4 October 2015

राहों को मेरी, कोई तो मंज़िल मिले



तन्हा अकेली यूँ चलती रहूँगीं
इस आसमां के तले। 
जाने कहॉं पे होगी सहर ये ,
शाम जाने ये कहॉं ढले। 

किश्तों में चलते हैं दिन धीरे धीरे ,
जाने कितनी ही कहानी लिए , 
आए जो काली रातें तो
इन आँखो में सपनों का दिया जले। 

जिन रास्तों को न कोई मंज़िल मिले, 
तो चले फिर वो किसके लिए। 
कह दो ख़ुदा से, 
राहों को मेरी, कोई तो मंज़िल मिले। 

समुंदर है मेरा , प्यासीं हूँ फिर भी,
बस एक क़तरे के लिए।
कह दो क़िनारों से
बहती इन धारों से बन के दरिया वो मुझमें पले

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