15 September 2015

नींद  की आँखे
बड़ी  ही कमज़ोर हो  गई है। 
सपनो के धागो से 
सीना  चाहती है ,
फटी हुई ख्वाहिशोंयों को ,
सोचती हूँ पैबंद लगा दू 
यादो के। 


मुई यादें भी ऐसी 
की बस ज़रा सा ज़ोर पर पड़ा 
और चरर्र से फट जाती है 
और बस  झाँकते  हे 
फटी हुई रिश्तो की  किताबे 
रिसते  हुए कलम 
की सियहि से 
बदनुमा मैला कुचला सा 
साँझ का आँचल 





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