8 August 2015

कृष्ण की दुविधा


हाँ , मैं ही कृष्ण हूँ
मैं ही पार्थ सारथि हूँ
मैंने ही सत्य की
असत्य पर विजय पताका
फहराई थी।

उस काल में
एक सत्य था, धर्म था
और
एक असत्य था , अधर्म था ,
था एक ही उस वक़्त
- कुरूक्षेत्र।
मैंने ही खून से नहाए हुए
उस सत्य का
विजय घोष किया था।

हाँ , मैं ही कृष्ण हूँ
मैं अनंत हूँ
सर्वज्ञ हूँ
मैं ही काल हूँ
मैं ही शून्य हूँ
मैं ही ब्रम्हांड हूँ।

मगर आज
आज मैं उद्धिग्न हूँ
उद्वेलित हूँ !

कारण ??

तब एक ही कुरुक्षेत्र था,
 और आज  ??
आज घर घर में कुरुक्षेत्र हैं।
आज घर घर में
हर तरफ
कौरव -पांडव का
घमासान युद्ध छिड़ा है।
प्रश्न सत्य- असत्य का नहीं
प्रश्न सत्ता का
और कुर्सी  का है।

आज का अर्जुन
अपने सारथि पे
हावी है
फिर मैं
जब की खुद मेरा अस्तित्व खतरे मैं हैं सत्य की परिभाषा
बताऊ कैसे??
आँख से अंधे
 कानो से बहरे
और गूंगे बने
युधिष्ठिर को
धर्मपुत्र कहलाऊं  कैसे?

आज
जबकि खुद ही द्रौपदी
सभागार में चलकर आई है
खुद उसने अपनी ही अस्मत
दांव पे लगाई है
तब
हर घर में और चौराहो पर
त्राहि त्राहि करती
 द्रौपदियों को मैं
चीर हरण से बचाऊ कैसे?

आज
जबकि हर कुंती ने
गंधारी की रीत
अपनायी है
आँखों पर मोह,
लालच और द्धेष  की पट्टी
बंधवाई है
जो अपनी कोख से
न एक भी
युधिष्ठिर या अर्जुन को
जान पाई है।
कोई बताए कि
ऐसे नक्कारख़ाने में
तूती की आवाज़ सुनौ कैसे?

आज जब न
कहीं ड्रोन है, न भीष्म है
न सत्य का कोई पक्षधर
तो
घर घर में छिड़े
इस महाभारत को
न्यायसंगत ठहराउ  कैसे?

आज
जब कि
सत्य अँधा हो
धृतराष्ट्र बन बैठा है
कैसे
मैं अकेला कृष्ण
उसमे समाहित शक्ति को
उसके धूमिल होते
अस्तित्व को
उसकी झूठ से चुधियाई
आँखों को
विजय का सपना दिखाऊ कैसे?

यद्यपि
मैं ही सत्य हूँ
मैं अजर
और अमर हूँ।
मैं ही ब्रह्मा
मैं विष्णु
मैं महेश हूँ
मगर
हर पांडव में
धूमिल होते
इस विशवास को जगाऊँ कैसे ?

विनाश की ओर
उठते हुए कदमो को
वापस लाऊ कैसे?

त्राहि त्राहि करती
वसुंधरा को
उसके ही कौरव पुत्रो से
मुक्त कराऊँ कैसे?

मगर
मैं कण कण में व्याप्त हूँ
मैं जान जान की आस हूँ
मैं ऊर्जा स्रोत्र हूँ मैं कृष्ण
निर्विकार हूँ
इसलिए
मुझे आकार चाहिए।
सिर्फ पार्थ पर
उस निमित्त का
कार्यभार है
अतः
जो पहुँचा सके जन  के
मानसपटल  तक
गीता के कर्मोपदेश
हर पृथा का ऐसा
पार्थ चाहिये।

मैं जानता हूँ
सत्य की कोख से
पांडव पुनः जन्म लेंगे
फिर कहलाऊंगा मैं
पार्थसारथी
और
असत्य पर सत्य की
 विजय पताका फहराने का
निमित्त बन जाऊंगा



composed on 27/6/96

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