उस रोज़ जब हवाएं
शाखों में फंस गई थी।
क्या जाने क्यों उस दरख्त में
एक हरारत सी हो गई थी।
उंगली में यूँ लपेटे
बादल को ये हवाएं।
आज जाने क्यों ये
शोख चँचल सी हो रही थी।
बूंदे फिसल के फलक से
यूँ क्यों दहक रही थी।
सावन में आज जैसे
एक आग लग गयी थी।
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