मेरे किचन की खिड़की में खुलती है शिवांगी की किचन की खिड़की।
मैं उसे अक्सर देखती हूँ तो सोचती हूँ - आज भी वो किस बात की सजा पा रही है शिवांगी ? औरत होने की , या एक बहुत ही पतिवत्रा पत्नी होने की या माँ होने की। कितना आसान है इस समाज में पुरुषो का पत्नियों को यूँ छोड़ जाना!!
अधेरा घिर आया था - बाहर भी, मेरे के भीतर भी।
सब कुछ हम लोगो के सामने हुआ था - १८ साल पहले जब शिवांगी और सिद्धार्थ हमारे सामने वाले घर में रहने आये थे।
और आज आठ बरस होने वाले है। अरे नहीं ! हो ही तो गए है… अप्रैल का ही तो महीना था वो सब हुआ था। .. आठ साल पहले जब वो सब हुआ था.……
आँखे नम हो गई थी उसकी। चेहरे का रंग पहले के बनिस्बत थोड़ा फीका पड़ गया था। … झाइयाँ हो गई थी। पहले भी थी ही …… कहाँ सुकून मिला उसे कभी भी शादी के उन १० बरस में।
शिवांगी की बेटी ने आवाज़ लगाई थी … मम्मा भूख लगी है खाना दो !
हाँ , आती हुँ - शिवांगी ने कहा।
हमारे घर में आवाज़ आती थी - वैसे भी शिवांगी की बेटी हमेशा चीखते हुए ही बात करती थी शिवांगी से. तमीज तो जाने कौन सी चिड़िया का नाम था।
शिवांगी , ४० साल की उम्र , सामान्य कद काठी। प्यार किया था उसने २० साल पहले। शादी की थी दोनों ने। सिद्धांत नाम था पति का।
बहुत प्यार करती थी शिवांगी उसे. शादी के तीन सालो में तो बेटी भी आ गयी थि.
बेटी - बड़े प्यार से नाम रखा था दोनों ने उसका - परिणीति। दोनों के प्रेम की परिणीति।
सिद्धांत बड़े अंधविश्वासी थे। कहते थे परिणीति को कालसर्प योग है. उनकी नौकरी छूट गयी थी। ये सब काल सर्प योग के कारण हो रहा है - ऐसा अक्सर कहते थे सिद्धांत।
क्या कुछ नहीं किया उनके लिए। उनके परिवार के लिए।
मगर किस्मत कुछ और ही लिखा कर लायी थी।
शहर बदला, नौकरी मिली और प्रेरणा भी - उनकी सहकर्मि. पता नहीं सहकर्मी से कब सहधर्मी और अर्धांगिनी बन गई - शिवांगी भाँप भी नहीं पायी और सब मुठ्ठी से रेत की तरह फिसलता चला गया।
दूसरे शहर में नौकरी मिली थी सिद्धांत को। शि वांगी को सिद्धान्त वहां आने नहीं देते थे - कहते बैचलर क्वार्टर में शेयरिंग में रहता हूँ तुम्हे कहाँ रखुँगा -ऐसा कहा करती थी शिवांगी जब मुझे मिलती - ये कहते उसकी नज़रे इधर उधर झांकने लगती
और फिर एक दिन अचानक शिवांगी और परिणीति पहुँच गए पता पूछते पूछते - और वो हुआ जिसका गुमान भी नहीं था।
सिद्धांत और प्रेरणा पति पत्नी की तरह वहां रह रहे थे -बरसो से।
फिर तो जमकर तमाशा हुआ - शिवांगी रोइ - परिणीति रोइ।
मगर अंत में वही खाल हाथ।
सब कुछ परिणीति के सामने हुआ था।
और फिर तो बुरे सपने की तरह ये ८ साल गुज़रे है।
हर पल टूटी वो, रोइ थी वो, तिल तिल मरती रही मगर पता नहीं विधाता ने और क्या लिखा था उसकी किस्मत में !!
परिणीति दोनों के अलग होने की वजह शिवांगी को मानती रही।
कोसती है शिवांगी को इस सब के लिए - । जवाब देती है। तमाशे करती है ,हाथ भी उठाने लगी है शिवांगी पर अब तो।
समाज, माँ बाप, रिश्तेदारो, सब कहते है - समझोता कर लो।
बेटी है तुम्हारी। कौन देखेगा उसे? उंच नीच हो गयी तो तुम्हारी ही थू थू होगी ! बेटी भी कहाँ समझती है वो शिवांगी को ? वो तो जैसे दुश्मन है उसकी।
उस रोज़ मुझे मिली तो कह रही थी -" हमारे समाज में औरत होना इतना बड़ा जुर्म क्यों है ? मैं औरत क्यों हुई?"
बोलने लगी - "सब कहते है - तुम्हे आज़ादी है - घूमने की। नौकरी करने की। independent हो। पर्दा नहीं करना पड़ता , गाँव की औरतो का सोचो!! उन औरतो का जो चारदीवारी में पैदा हुई और वहीँ मर गयी. तुम कितनी बेहतर हो उन सब से।
बस खुश रहो !! "
आँखे नम हो गयी उसकी
बोलती चली गई - " कितना आसान है ये सब कह जाना। मेरे हिस्से की ज़िन्दगी जीते तो पता चलता। मैं औरत हूँ औरत के बनाये हुए समाज का शिकार हूँ। "
"आदमी क्या मारता मुझे ?? मुझे तो मुझ सरीखी औरतो ने मुझमे मेरे औरत होने का अहसास जगाकर मेरे अंदर की औरत को ही मार डाला। "
मैं मूक सी शिवांगी को देखती रही
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