25 November 2014

गज़ल



शहेर मे कुछ आवारा गज़ल उड़ रही थी
शायरो की भी तबीयत मचलने लगी थी

दुपट्टा उड़ा कर एक ग़ज़ल दूसरी से
आपस मे वो ठिठोली कर रही थी

सफो पर कही कुछ लिखी जा रही थी
उधर कुछ बगीचे मे बैठी  अलसा रही थी


वही एक कमसिन नाज़ुक सी ग़ज़ल थी
जो खुद मे शरम से सिमटती जा रही थी

अचानक हवा मे हरारत सी हुई थी
ग़ज़लो ने मधुर रागिनी छेड़ दी थी


मेरे अल्फाजो ने उनको आवाज़ दी थी
क्यूँ आई हो इस शहेर मे बताओ?


ग़ज़ल ने कहा हम शायरो की प्रेयसी थी
सदा से फ़िज़ा मे यूही गुनगुनाती रही थी

लफ्ज़ है, दर्द है,  तो ग़ज़ले बनती रहेंगी
आज हम है यहाँ,  कल कही और थी।

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