मेरी आंखों में तुम्हारे
इंतज़ार के कुछ
घने जंगल उग आए है
ये mangroves है
ये आसुओं से
क्षारीय पानी में ही
उगा करते है
कुछ व्यथा के
बड़े बड़े पेड़
उग आए है इनमें..
जिनकी जड़े
पैठ चुकी है,
आंखो से होते हुए...
मेरे तन और मन के
बहुत भीतर तक !!
ये शिथिल और
स्थूल करने लगे है
मेरा मन और तन ।
उदासीनता की
जेलीफिश
और व्यथा के विरह के घोंघे
पनपने लगे है यहां
जो अक्सर दिख जायेंगे तुम्हे
मेरे आचरण,
मेरे हाव भाव के
मेरी आंसुओं के
समुंदर में तैरते हुए
कई लोग आए यहां
परिंदों सरीखे
घरौंदा बना,
फिर परित्याग कर,
उड़ गए...
सदा के लिए !
सुनो,
ये आंखें प्रतीक्षारत है,
जब भी आओगे,
ढूंढना मुझे,
मेरी आत्मा,
मेरा अंतर्मन,
मेरा चेतना को....
यहीं कहीं होंगी वे,
मछली बन तैरती हुई
मगर सुनो,
ये मुमकिन है कि
कभी मेरे सफर पे
चल पड़ो तो,
इन क्षारीय पानी में
उग आए उन
आक्रोश के शैवालों से
लहूलुहान भी हो जाओ!!
चाहे जो हो,
तुम्हें आना होगा,
मैं प्रतीक्षा करूंगी तुम्हारी
आज और ....
हमेशा !
1 comment:
बहुत ही सुन्दर कविता है, जो इस विश्वास को फिर से मज़बूत बना देती है कि एहसास सच्चे और गहरे हों तो सही शब्द मिल ही जाते हैं
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