26 September 2021

इन्तजार के घने जंगल

मेरी आंखों में तुम्हारे

इंतज़ार के कुछ

घने जंगल उग आए है

ये mangroves है

ये आसुओं से

क्षारीय पानी में ही

उगा करते है


कुछ व्यथा के

बड़े बड़े पेड़ 

उग आए है इनमें..

जिनकी जड़े

पैठ चुकी है,

आंखो से होते हुए...

मेरे तन और मन के 

बहुत  भीतर तक !!

ये शिथिल और

स्थूल करने लगे है

मेरा मन और तन ।


उदासीनता की

जेलीफिश

और व्यथा के विरह के घोंघे

पनपने लगे है यहां

जो अक्सर दिख जायेंगे तुम्हे

मेरे आचरण,

मेरे हाव भाव के

मेरी आंसुओं के

समुंदर में तैरते हुए


कई लोग आए यहां 

परिंदों सरीखे 

घरौंदा बना,

फिर परित्याग कर,

उड़ गए...

 सदा के लिए !


सुनो,

ये आंखें प्रतीक्षारत है,

जब भी आओगे,

ढूंढना मुझे,

मेरी आत्मा,

मेरा अंतर्मन,

मेरा चेतना को....

यहीं कहीं होंगी वे,

मछली बन तैरती हुई


मगर सुनो,

ये मुमकिन है कि

कभी मेरे सफर पे

चल पड़ो तो,

इन क्षारीय पानी में 

उग आए उन

आक्रोश के शैवालों से

लहूलुहान भी हो जाओ!!


चाहे जो हो,

तुम्हें  आना होगा,

मैं प्रतीक्षा करूंगी तुम्हारी

आज और ....

हमेशा  !


1 comment:

Dhananjay Verma said...

बहुत ही सुन्दर कविता है, जो इस विश्वास को फिर से मज़बूत बना देती है कि एहसास सच्चे और गहरे हों तो सही शब्द मिल ही जाते हैं