मैं ज़िंदगी ...
बंद घरों में
दीवारों की सीलन सी ..
चू रहे छत
टपकती बूँदों सी ..
बारिशों में उग आती
फ़र्निचर और
गीली सीली चीज़ों पे
वो हरी चिकनी काई सी..
बंद कमरों की
दम घोंटू हवा जैसी ..
और
जहाँ तहाँ उग आए
मकड़े के जालों सी ..
कोई मुझको..मुझसे
बाहर तो निकाले..
मैं जीना चाहती हूँ!
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