27 December 2018

शब्द लावा होते है

वो ....औरत है ...
वो पानी सी तरल है !
जहाँ रहे ...
वही रंग ...
वही रूप ...
वही स्वरूप ले लेती है !

हर औरत 
बस होती है 
निर्मल सा ...
पावन सा ..
सकूँ का सोता !!

मगर जब जब 
 तानो का ..लानतों  का
खौलता हुआ 
पिघलता हुआ लावा ...
गिरता है इस पानी में ...
शनै शनै ...

और फिर ...
भूचाल सा उठता है भीतर ..
धुआँ भी ...ग़ुबार भी ...
जो थम जाता है 
वक़्त के हाथ ...
वक़्त के साथ !!

तदुपरांत ...ये लावा 
ठोस होने लगता है...
और जैसे ...
पत्थर कोई,
पनपने लगता है
उसके भीतर !!

और आख़िरकार ...
एक रोज़ वो 
अहिल्या  हो जाती है 
और ...
फिर किसी राम के 
स्पर्श से भी 

जीवित नहीं होती !!

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