"वो रोती हुई आई थी !"
"आज फिर एक झूठ मिला उसे ।"
आज फिर से बिखर सी गई, मर सी गई वो लड़की - वो लड़की - जो रेखा के भीतर रहती है - छुप कर, बरसो से !!
अपने भीतर छुपी, डरी , सहमी, पागल सरीखी उस लड़की से फिर क्या कहे रेखा ?
पूछा तो पता चला कि आज कोई फिर उसे सब्ज़बाग दिखा चला गया है उसे !!
आज फिर वो जिस मरीचिका के पीछे दौड़ पड़ी थी - वह स्वप्न - दुःस्वप्न बन औंधे मुह बेसहारा, लाचार में मुह बाए गिरा पड़ा मिला है??
आज फिर से रेखा को उस लड़की को वापस,समय में , कई बरस पीछे ले जाकर छोड़ देना होगा।
... उसी पुराने सफर पर .... हर बार नए सिरे से शुरू करती है वो जहाँ से .... और हर बार फिर मर ही जाती वो अल्हड पगली षोडशी।
हर बार काँधे पर उसके बेजान शरीर को छोड़ आती है - दिमाग के अंधेर सुनसान गलियारों में - जहाँ कोई नहीं आता जाता।
वहां से फिर जाने कैसे ज़िंदा हो लौट आती है - और शुरु होता है फिर वही चक्र - मृग - मरीचका में किसी सपने को अपने बनाने की होड़ में दौड़ लगाने का।
कमबख्त ढीठ जान है। .. मरती भी तो नहीं !
बरसो हो गए .... जाने किसका इंतज़ार करती है .... क्यूँ इंतज़ार करती है।
अब तो खुद रेखा भी थक गई है ... उसका बोझ ढ़ोते ढ़ोते !!
उलाहने देती है उसे - उसके भीतर कुढती हुई उस लड़की को --"सुन, पैतालीस की हो गई हूँ ..... कब तक तेरी ज़िद के सामने झुकूं मैं"
अब रेखा से बर्दाश्त नहीं होता इसका पागलपन ......
सोचती है ,रोज़ इतने इंसान मरते है - जाने किन किन वजह से - बस ये कलमुही नहीं मरती।
मर जाए तो टंटा ख़त्म .... सुकून से जी सकेगी .... मर सकेगी ।
मगर ये न मरेगी , न उसे जीने देगी !!
कई बार रेखा के जी में आया - जी भर के कोसें उसे - भर भर के गाली दे उसे !!
गला घोटा था उसका एक बार, कलाई भी काट दी थी उसकी ...... मगर कमबख्त ज़िंदा रही !
कमीनी ! मौत को झांसा दे के लौट आई तीन बार !!
रेखा बड़बड़ाती है - " मुझे लेकर ही मरेगी , कमबख्त !! "
"ऐ लड़की - तू चली जा मुझे छोड़ के ..... अब मेरे कंधो में , वो हौसल, वो जान नहीं है! ... और सुन , तू ये तलाश छोड़ दे ..... लौट जा .... न तो ये ज़माना तेरा है न वक़्त तेरा है ...... अब तेरी पहचान का कोई नहीं रहता यहाँ !"
"जिन्हें तू हर बार ढूंढ लाती है न - वो छलावा है - वो तुझें सिर्फ .... .... .... .... , अब क्या कहूँ तुझे मैं ? निगोड़ी, सब जानती है समझती है ..... फिर भी !!"
-"मर जा तू कहीं जाकर !! ,जा किसी कुँए में कूद के जान दे दे ... मगर मुझे बक्श दे !" - रेखा कई बार बुदबुदाती रहती है गुस्से में !
कहती है - " सुन - तूने मुझे अब तलक जीने नहीं दिया - थक गई हूँ मैं बहुत ,सच बहुत बहुत थक गई हूँ मैं। " "हिम्मत नहीं है मुझमे - तुझे बार बार मरते देखने की - ऐसी कितनी रेखाओं की लाशो का बोझ लिए फिरूँ मैं - सुन बक्श दे मुझे -चली जा - भगवन के लिए चली जा !!
आज वहां कोसी में भी बाढ़ आई है और रेखा के दिल और आँखों में भी !!
"आज फिर एक झूठ मिला उसे ।"
आज फिर से बिखर सी गई, मर सी गई वो लड़की - वो लड़की - जो रेखा के भीतर रहती है - छुप कर, बरसो से !!
अपने भीतर छुपी, डरी , सहमी, पागल सरीखी उस लड़की से फिर क्या कहे रेखा ?
पूछा तो पता चला कि आज कोई फिर उसे सब्ज़बाग दिखा चला गया है उसे !!
आज फिर वो जिस मरीचिका के पीछे दौड़ पड़ी थी - वह स्वप्न - दुःस्वप्न बन औंधे मुह बेसहारा, लाचार में मुह बाए गिरा पड़ा मिला है??
आज फिर से रेखा को उस लड़की को वापस,समय में , कई बरस पीछे ले जाकर छोड़ देना होगा।
... उसी पुराने सफर पर .... हर बार नए सिरे से शुरू करती है वो जहाँ से .... और हर बार फिर मर ही जाती वो अल्हड पगली षोडशी।
हर बार काँधे पर उसके बेजान शरीर को छोड़ आती है - दिमाग के अंधेर सुनसान गलियारों में - जहाँ कोई नहीं आता जाता।
वहां से फिर जाने कैसे ज़िंदा हो लौट आती है - और शुरु होता है फिर वही चक्र - मृग - मरीचका में किसी सपने को अपने बनाने की होड़ में दौड़ लगाने का।
कमबख्त ढीठ जान है। .. मरती भी तो नहीं !
बरसो हो गए .... जाने किसका इंतज़ार करती है .... क्यूँ इंतज़ार करती है।
अब तो खुद रेखा भी थक गई है ... उसका बोझ ढ़ोते ढ़ोते !!
उलाहने देती है उसे - उसके भीतर कुढती हुई उस लड़की को --"सुन, पैतालीस की हो गई हूँ ..... कब तक तेरी ज़िद के सामने झुकूं मैं"
अब रेखा से बर्दाश्त नहीं होता इसका पागलपन ......
सोचती है ,रोज़ इतने इंसान मरते है - जाने किन किन वजह से - बस ये कलमुही नहीं मरती।
मर जाए तो टंटा ख़त्म .... सुकून से जी सकेगी .... मर सकेगी ।
मगर ये न मरेगी , न उसे जीने देगी !!
कई बार रेखा के जी में आया - जी भर के कोसें उसे - भर भर के गाली दे उसे !!
गला घोटा था उसका एक बार, कलाई भी काट दी थी उसकी ...... मगर कमबख्त ज़िंदा रही !
कमीनी ! मौत को झांसा दे के लौट आई तीन बार !!
रेखा बड़बड़ाती है - " मुझे लेकर ही मरेगी , कमबख्त !! "
"ऐ लड़की - तू चली जा मुझे छोड़ के ..... अब मेरे कंधो में , वो हौसल, वो जान नहीं है! ... और सुन , तू ये तलाश छोड़ दे ..... लौट जा .... न तो ये ज़माना तेरा है न वक़्त तेरा है ...... अब तेरी पहचान का कोई नहीं रहता यहाँ !"
"जिन्हें तू हर बार ढूंढ लाती है न - वो छलावा है - वो तुझें सिर्फ .... .... .... .... , अब क्या कहूँ तुझे मैं ? निगोड़ी, सब जानती है समझती है ..... फिर भी !!"
-"मर जा तू कहीं जाकर !! ,जा किसी कुँए में कूद के जान दे दे ... मगर मुझे बक्श दे !" - रेखा कई बार बुदबुदाती रहती है गुस्से में !
कहती है - " सुन - तूने मुझे अब तलक जीने नहीं दिया - थक गई हूँ मैं बहुत ,सच बहुत बहुत थक गई हूँ मैं। " "हिम्मत नहीं है मुझमे - तुझे बार बार मरते देखने की - ऐसी कितनी रेखाओं की लाशो का बोझ लिए फिरूँ मैं - सुन बक्श दे मुझे -चली जा - भगवन के लिए चली जा !!
आज वहां कोसी में भी बाढ़ आई है और रेखा के दिल और आँखों में भी !!
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