2 August 2016

है झुर्रिया या वक़्त की कोई दास्तान






बह चला  है  खून में जो एक बहाव सा है तू
 न दे  किसी को जो कभी, एक सुझाव सा है तू

  था दर्द तू   तूने ने लिखी  ग़मों  की  दास्तान 
इन झुर्रियां  में   उम्र के एक पड़ाव सा है तू

होड़ थी  हर दर्द में , मुझे दर्द  दे कोई   
चर्चे बड़े है शहर में कि एक चुनाव सा है तू 

 गर्म,  मौसम-ए-हिज्र का अब के ज़रा हुआ है    
 जल रहा हो  यादों  का जैसे  अलाव सा है  तू 

बदन छलनी हो गया रूह भी छलनी  रही  
 सुलग रहा सदियों से जो  हरे से  घाव सा है तू 

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