कुछ सुनी है मैंने , कुछ अनसुनी है बाते
शामें भी अनमनी है, उलझी हुई है राते
जुगनू भी थक गए है खुद को यूँ जलाकर
कैसे भला अंधेरो के उजालो से है ये नाते
ऐ काश क़ि समुन्दर होती मेरी हथेली
लिखती मेरा मुक़द्दर लहरें यूँ आते जाते
मेरे आशियां में आया, तू जलजला था कोई
ज़र्ज़र है अब दीवारे, और टूटे है ये अहाते
No comments:
Post a Comment