25 November 2014

रेत के घर ने ही मुझे मज़ार दिए

वक़्त ने जख्म बेशुमार दिए,
जिस्म और रूह तार तार किए। 

मैं तो बैठी हुई थी किनारो पे,
रेत के घर ने ही मुझे मज़ार दिए। 


मुड़ के देखू कभी जो राहो मे, 
लिख दिए थे  दरखतो पर ,कभी वो नाम मिले। 

ना शिकायत, ना गिला है ज़माने से,
वो मिले है, जो गम तकदीर ने मेरे नाम लिखे 

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