25 November 2014

कभी भी हुई ना और कभी भी ना होगी

ये पाँव मेरे ज़मीं पर तो पड़ते नही थे
ज़िंदगी को तो जैसे पर लग गये थे

उड़ने लगी मैं  खुले आसमा में
सपनो को  जैसे नई ज़िंदगी मिल गयी थी

ये दरख़्त कैसे कैसे सरसारते हुए से 
हवा से बड़ी शिद्दत से गले मिल रहे थे

सूरज की दह्कति  किरण को छुकर
फुलो के बदन भी दहकने लगे थे

हर तरफ जैसे संगीत बजने लगा था
साँसे मेरी भी बहकने सी  लगी थी


 अचानक वक़्त ने मुझे आकर जगाया 
देखा तो …..

उम्र बेतहाशा बड़ी हो  चुकी  थी, 
सफेदी ने बालो मे जगह घेर ली थी,
झुरिया चेहरे से झाकने भी लगी थी.

समय ने कहा मुझसे - उठो तुम और जाओ!
ये सपने  अब किसी और आँख के है,

तुम्हारा वक़्त तो गुज़र भी गया है!
नही शोभते तुम्हारी आँखों मे ये सपने,

हर एक चीज़ की उम्र तय हो चुकी है.
वो सपने जिन्होने तुमको आवाज़ दी है
वो तुम्हारे नही किसी और के है.

अब जाओ, ना  आना इस देस लाडो
तुम्हारी ये दुनिया कभी भी नही थी

ना कल थी, ना है आज और कल भी ना होगी
कभी भी हुई ना और कभी भी ना होगी

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